बलदेव कैंथ
पुराना कोट बेकार हो गया था। वह घिस गया था और दो-तीन जगह
सुराख भी हो गए थे। सर्दी का जोर बढ़ गया था। मैंने सोचा, पुराना कोट किसी गरीब
आदमी को दे देना चाहिए। पर सवाल था किसे दूँ?
अचानक गली के कोने में रहने
वाले शामू को दरवाजे में ठिठुरते हुए देखा। उसने अपने ऊपर पतली-सी मैली चादर ली
हुई थी। मैंने आवाज़ लगाकर कोट उसे दे दिया। कोट पहन, खुशी से फूला, वह बोला, “मास्टर जी, गर्म लगता है…रब्ब तुम्हें और ज्यादा दे…।”
उसे खुश देख मेरे मन
को बहुत संतुष्टि मिली। चलो किसी के काम तो आया। पत्नी तो पुराने कपड़ों वाले को
एक रुपए में बेचने लगी थी।
मैं नहाने के बाद
दरवाजे पर खड़ा था। ठंड बहुत थी। चारों ओर धुँध थी। मुझे शामू घर के सामने से
गुजरता दिखाई दिया। वह ठिठुर रहा था। मुझे उस पर बहुत गुस्सा आया। कंजर ने इतनी
ठंड में भी कोट नहीं पहना! मैंने उसे बुला कर
कोट के बारे में पूछा।
पहले तो वह चुप रहा,
फिर उदास-सी आवाज़ में बोला, “वह कोट तो बंतो ने दस
रुपए में बेच दिया। घर में आटा खत्म हो गया था। बच्चे रोटी…।” वह आगे कुछ न बोल सका। मैंने उसकी आँखों में
देखा। पानी से भीगी आँखें जैसे समंदर में बगावती लहरें उठ रही हों।
वह चला गया, मगर मैं
गर्म कपड़ों में भी सुन्न हुआ खड़ा था।
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