Monday, 13 July 2015

गऊमाता




अनवंत कौर

राजू शर्मा की ससुराल नदी के पार थी। उस गाँव में अधिकतर घर ब्राह्मणों के थे। गऊ-गरीब की रक्षा करना वे अपना पहला धर्म मानते थे। राजू गाँव के एक सम्मानीय पुरोहित का दामाद था। गाँव में उसकी बहुत इज्जत थी। एक दिन लोगों ने देखा कि राजू कीचड़ में लथपथ एक गाय को हाँक कर नदी से बाहर निकाल रहा है। भीड़ एकत्र हो गई। भीड़ को देखकर साँसों-साँस हुआ राजू बताने लगा
गऊमाता कीचड़ में बुरी तरह फँसी हुई थी। मैने देखा तो मुझसे सहन नहीं हुआ। जान जोखिम में डालकर मैं इसे बचाकर लाया हूँ। अगर मैं न देखता तो इसका बचना कठिन था।
गाँव वाले उसके इस परोपकार को देखकर बहुत खुश हुए। सभी ने उसकी जय-जयकार की। उसके कीचड़ में सने वस्त्रों की परवाह किए बिना लोग उसे गले लगे। जलूस के रूप में राजू को उसकी ससुराल तक लाया गया। उसके कीचड़ में सने वस्त्रों को देखकर उसकी पत्नी बोली, पहले हाथ-मुँह धोकर कपड़े बदल लो।
कपड़ों का क्या है? धो कर साफ हो जाएंगे। भगवान की कृपा से गऊमाता की जान बच गई।
पत्नी उसे घर के भीतर ले गई, लावारिस गाय थी। मर जाती तो आसमान नहीं टूट पड़ता। तुम्हें इस मुसीबत में पड़ने की क्या जरूरत थी?”
राजू हँसता हुआ लोटपोट हो गया, फिर बोला, पगली! गऊ को बचाने की कहानी तो गढ़नी पड़ी। असल में मुझे तुम्हारे पास आना था। नदी पर पहुँचा तो देखा वहाँ कोई नाव नहीं थी। नदी में पानी बहुत कम था। कम पानी देख, मैं पैदल ही नदी पार करने लगा। बीच में पहुँचा तो पानी थोड़ा गहरा हो गया, ऊपर से कीचड़ ही कीचड़। मैं कीचड़ में धँसने लगा। न आगे बढ़ पा रहा था, न पीछे मुड़ पा रहा था। तभी मेरी नज़र इस गऊ पर पड़ी। सोचा यह जरूर कीचड़ से बाहर निकाल देगी। सो मैने गऊ की पूँछ पकड़ ली और उसे धकेलता हुआ किनारे तक पहुँच गया। यह गऊ न होती तो मैं तो बीच में ही रह जाता।
पत्नी उसे धुले वस्त्र पकड़ा, जय गऊमाता की!’ कहती हुई बाहर जुटी भीड़ में शामिल हो गई।
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