डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति
“चल बापू! तू हमारे साथ शहर चल। पीछे हमें बहुत परेशानी रहती है। दोनों ड्यूटी वाले, बच्चों की पढ़ाई और कई तरह के काम। मुश्किल से ही समय मिल पाता है, गाँव आने का। यूँ ही परेशानी रहती है।” सुखजीत ने कहा।
“मुझे कोई तकलीफ नहीं हैं यहाँ, बिल्कुल कोई दिक्कत नहीं। यूँ ही मन पर बोझ
डालने की ज़रूरत नहीं। सुबह-शाम दो घंटे गुरुद्वारे लगा आता हूँ। फिर चौपाल में
कोई न कोई जुंडली जुड़ी रहती है। यूँ ही गाँव में सुख-दुख चलता रहता है, तू खुश
रह।” और फिर
थोड़ा रुक कर वह बोला, “मैने कभी तुझसे शिकवा
किया हो कि तू आता नहीं, तो कह।”
“बापू, तेरे शिकवे की बात नहीं, खुद को तो महसूस होता है न। पिछले महीने तू
बीमार हो गया। न कोई संदेश, न पता। परेशानी तो होती है न।”
“अब उमर ही ऐसी है बेटे, थोड़ा बहुत शरीर ढ़ीला रहता ही है। गाँव का डाक्टर
बहुत अच्छा है। मैं तो हर रोज, एक बार उसके पास जाता ही हूँ, नेम की तरह। बहुत ही
भला मानस है।”
“बापू, अब मैं तुम्हें कैसे समझाऊँ। बापू, चाहे किराये का मकान ही है, मिलजुल
कर लेंगे गुज़ारा। तू मेरी परेशानी समझ।”
“बेटा, तू ही न जिद्द कर।”
“जिद्द तो बापू तू कर रहा है।”
इस बार बेटे की जिद्द
मानी गई और बापू शहर आ गया।
सुबह उठ, बच्चों को
तैयार कर स्कूल भेजा। फिर दोनों अपने तैयारी में जुट गए और जाते हुए कहा, “बापू, अपना ख्याल रखना।”
बापू ने पूछा, “बेटा, कितने बजे वापस आओगे?
“छः तो बज ही जाएंगे।”
“बच्चे तो स्कूल से जल्दी आ जाते होंगे?” बापू ने फिर पूछा।
“नहीं बापू, वे भी हमारे साथ ही आएंगे, डे-बोर्डिंग में हैं।”
और फिर गेट के पास
पहुँच कर सुखजीत ने बापू से कहा, “गली में या कहीं बाहर
मत जाना। यूँ ही कहीं खो जाओ।”
और शाम को जब वे लौटे
तो बापू सचमुच ही खो गया था।
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