जगदीश राय
कुलरियाँ
“बेटा, मेरी यही विनति है
कि मेरे मरने के बाद मेरे फूल गंगा जी में डाल कर आना।” मृत्युशय्या पर पड़े
बुज़ुर्ग बिशन ने अपने इकलौते पुत्र विसाखा सिंह कि मिन्नत-सी करते हुए कहा। गरीबी
के कारण इलाज करवाना ही कठिन था। ऊपर से मरने के खर्चे। फूल डालने जैसी रस्मों पर
होने वाले संभावित खर्चे के बारे में सोच कर विसाखा सिंह भीतर तक काँप उठता था।
“लो बच्चा! पाँच रुपये हाथ
में लेकर सूर्य देवता का ध्यान करो।” फुटबाल जैसी तोंद वाले पंडे की बात ने उसकी तंद्रा को भंग
किया।
उसे गंगा में खड़े काफी
समय हो गया था। पंडा कुछ न कुछ कह उससे निरंतर पाँच-पाँच, दस-दस रुपये बटोर रहा
था।
“ऐसा करो बेटा, दस रुपये
अपने दहिने हाथ में रखकर अपने पित्तरों का ध्यान करो…इससे मरने वाले की आत्मा को
शांति मिलेगी।”
अब उससे रहा नहीं गया, वह बोला, “पंडित जी, यह क्या
ठग्गी-ठोरी चला रखी है। एक तो हमारा आदमी दुनिया से चला गया, ऊपर से तुम मरे का
माँस खाने से नहीं हट रहे। ये कैसे संस्कार हैं?”
“अरे मूर्ख, तुझे पता नहीं
कि ब्राह्मणों से कैसे बात की जाती है! जा मैं नहीं करवाता पूजा। डालो, कैसे
डालोगे गंगा में फूल?…अब तुम्हारे पिता की गति नहीं होगी। उसकी आत्मा भटकती
फिरेगी…।” पंडे ने क्रोधित होते हुए
कहा।
“बापू ने जब यहाँ स्वर्ग
नहीं देखा तो ये तुम्हारे मंत्र उसे कौनसे स्वर्ग में पहुँचा देंगे?…जरूरत नहीं
मुझे तुम्हारे इन मंत्रों की…अगर तुम फूल नहीं डलवाते तो…” इतना कह उसने अपने हाथों
में उठा रखे फूलों को थोड़ा नीचा कर गंगा में बहाते हुए आगे कहा, “ले ये डाल दिए फूल!”
उसका यह ढंग देखकर पंडे का मुँह खुला का खुला रह
गया।
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