रणजीत
आज़ाद काँझला
“बहन राम कौर! अपनी छोटी
बेटी ममो को कल सुबह जल्दी ही भेज देना, कंजकों को भोजन कराना है। कल अष्टमी जो
है।” मुहल्ले में चौथे घर से
आई नौरती आवाज दे और कंजकों को निमंत्रण देने आगे को चल पड़ी।
“कोई न बहन! भेज देंगे, सुबह जल्दी ही। फिर इसने स्कूल भी
जाना है।” मेरी पत्नी रसोईघर में से
हुंकारी भरती हुई बोली।
कंजकों को भोजन खिलाने की बात मेरे कानों तक भी पहुँच गई
थी।
“नौरती ने कंजकों को भोजन किस लिए कराना है?” जानने के लिए मैंने पत्नी से प्रश्न किया।
“वो जी! इसके बड़े बेटे को ब्याहे तीन साल हो गए, पर उसके
घर…”
“पर उसके घर क्या? पिछले दिनों इनकी बड़ी बहू ने प्राइवेट अस्पताल में अबारशन तो करवाया है।”
“हाँ। वह तब करवाया जब टैस्ट में लड़की की रिपोर्ट आई थी।
इसी लिए एक बार फिर आपरेशन करवाना पड़ा।” स्त्री-जाति की दुश्मन बनी औरत-जीभ बोल रही थी, “ कंजकों को इसीलिए तो भोजन
करवाते हैं कि भगवान हमारे घर अच्छी चीज दे।”
मैं गुस्से में गरजा, “इन पापियों के घर अपनी बेटी को भोजन के लिए मैंने नहीं भेजना । मासूम कंजक का
तो पेट में कत्ल करवाते हैं, फिर इन्हीं कंजकों को भोजन करवा कर ‘लाल’ चाहते हैं…!”
मेरी खरी-खरी बातें सुन पत्नी मुँह लटकाए रसोईघर में चली गई।
-0-
No comments:
Post a Comment