प्रीत
नीतपुर
ससुराल से पहली
बार वह मायके आई थी। गाँव के बस-अड्डे पर
उतरी तो उसे बस-अड्डा कुछ बदला-बदला सा लगा। यह वही बस-अड्डा था, जहां से वह
रोज़ाना घास की गठरी लेकर गुज़रती थी।
“इतनी जल्दी, इतना कुछ कैसे बदल गया?” वह बुड़बुड़ाई। वास्तव
में तो कुछ भी नहीं बदला था, बस उसका भ्रम ही था।
“बेटी भुच्चो, ठीक है…?” फलों की रेहड़ी लगाने
वाले, दलितों की बस्ती में रहते रिश्ते के ताऊ ने उसका हालचाल पूछा।
उसे यूँ लगा, जैसे ताऊ ने उसका अपमान किया हो। उसका मन बुझ
सा गया। वह कहना चाहती थी, ‘ताऊ! अब मैं भुच्चो नहीं, भूपिंदर कौर हूँ…भूपिंदर कौर…।’
“हाँ ताऊ, मैं ठीक हूँ।” कहकर वह अपने पति के
नज़दीक होती बोली, “बच्चों के लिए कोई चीज ले लें।”
“हां, ले ले।” पति को भी याद आया कि पहली बार ससुराल खाली हाथ नहीं जाते।
भुच्चो के पूछने पर रेहड़ी वाले ने बताया, “केले चौदह रुपये
दर्जन…संतरे चौबीस रुपये…और सेब…।”
‘बड़े तीन भाइयों के कितने बच्चे हैं, दर्जन केलों में से तो
एक-एक भी हिस्से नहीं आएगा।’–भुच्चो ने सोचा और धीमी-सी आवाज़ में घरवाले से पूछा, “ फिर कितने लें…?”
“देख ले…’गर दस से ज्यादा खर्च लिए तो वापसी का किराय नहीं
बचेगा…।”
“हाय रब्बा!” एक लंबी आह उसके भीतर आग की लपट की तरह फिर गई।
‘हम गरीबों की जाई, मायके में भी भुच्चो और ससुराल में भी
भुच्चो!’
भुच्चो को यूँ महसूस हुआ जैसे वह बिवाई-फटे नंगे पाँव घास
की पहले से भी भारी गठरी उठाए अड्डे में से गुज़र रही हो।
-0-
No comments:
Post a Comment