विवेक
‘यहीं तो रखी थी, किधर गई?’ राम शरण ने अलमारी के खानों में ऊपर-नीचे हाथ मारते हुए
अपने-आप से कहा। भूख से शायद उसके पेट में थोड़ा दर्द भी हो रहा था। ऊपर से
ज़िंदगी का अंतिम पहर। उस ने फिर से रोटी ढूँढ़ने की कोशिश की। रात की बची एक रोटी
उसने सुबह के लिए सँभाल कर रख ली थी।
राम शरण अक्सर ही रात के भोजन में से एक रोटी बचा कर अलमारी
में रख लेता था। सभी ओर देख कर भी उसे रोटी न मिली। अंततः बेहाल अवस्था में वह
चारपाई पर बैठ गया।
“दादा जी, आप क्या ढूँढ़ रहे थे?” उसके सात वर्षीय पोते ने पूछा।
“बेटे, यहाँ अलमारी में एक रोटी रखी थी, पता नहीं कहाँ गई?” राम शरण ने परेशानी की हालत में अपने पोते से कहा।
“वह रोटी तो मैंने खाली। साथ ही मम्मी को भी कह दिया कि दादा
जी की अलमारी में रोटी पड़ी थी। मम्मी कहती, अब तेरे दादा जी को फालतू रोटी नहीं
देनी, खाते तो है नहीं, यूँ ही सँभाल कर रख देते हैं।”
“बेटे, तू रोटी खा लेता, पर अपनी मम्मी को न बताता। मुझे तो
पहले ही रोटी कम मिलती है। मैं तो रोटी बचा-बचा कर खाता हूँ।” रोटी की कमी और उदासी
प्रश्नचिह्न बन कर राम शरण के चेहरे पर लटक गईं।
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