रघबीर
सिंह महिमी
मेरा एक दोस्त कई
वर्षों बाद मुझे गुरुद्वारे जाते हुए मिल गया। मुझे ध्यान से देखता हुआ बोला, “दीदार सिंह! तुमने अभी तक
अमृत नहीं छका?”
“नहीं।” उस द्वारा अचानक सवाल पूछने से मैं शरमा गया।
“तू कैसा सिक्ख है अगर अमृत ही नहीं छका? तुझे पता है जो
सिक्ख अमृत नहीं छकता, गुरु गोबिंद सिंह जी उसे अपना सिक्ख नहीं मानते। वह इस लोक
में भी भटकता है, परलोक में भी।”
मेरी आँखों में और शर्मिंदगी छा गई।
“चल छोड़ यार, यह बता कि प्रीती की शादी की कि नहीं? मैंने
बात का रुख बदलने की कोशिश की।
“कहाँ यार! कोई ढंग का लड़का ही नहीं मिल रहा। तू ही बता दे 'गर तेरी निगाह में है कोई। बी.ए. करके बी.एड की है उसने।”
“अपने बिंदर ने भी तो बी.एस.सी करके बी.एड. कर ली है। दोनों
साथ पढ़ते रहे हैं, एक-दूसरे को अच्छी तरह जानते हैं और दोनों अमृतधारी हैं। विचार
कर ले इस बारे।” मैंने अपनी राय पेश की।
“ओए, तुझे पता नहीं, हम जाट होते हैं!” गुस्से में उसकी आँखों से
आग की लपटें निकल रही थीं।
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