संजीव
छाबड़ा
उजागर सिंह
पचहत्तर पार कर चुका था। वह पिछले दस दिनों से चारपाई पर बीमार पड़ा था। बारी का
बुखार चढ़ा था। उसकी पत्नी गुरनाम कौर उसे बहुत ढाढ़स बंधाती, पर वह भीतर से टूट
चुका था। पिछले पाँच-सात वर्षों से नरमे की फसल भी मर रही थी। बैंक व आढ़तियों का
कर्ज सिर से ऊँचा हो गया था।
बीमार पड़ने से पहले उजागर सिंह आढ़ती राधेश्याम के पास सात-आठ
बार जा आया था। परंतु आढ़ती था कि पैसे देने के नाम पर उँगली नहीं पकड़ा रहा था।
गुरनाम कौर ने सुबह चूल्हा-चौके का काम निपटाया। फिर उजागर सिंह की चारपाई से उठती
हुई बोली, “सरदार जी, आज मैं जाती
हूँ चौधरी राधेश्याम के यहाँ…आदमी के अच्छे-बुरे दिन आते रहते हैं…क्या अब हम भूखे
मर जाएँ? पिछली तीन पीढ़ियों से
उनके व अपने परिवार का साथ रहा है।”
उजागर सिंह चाहकर भी न रोक सका।
गाँव से शहर की ओर जाती हुई गुरनाम कौर सोच रही थी– उसके चार बेटे घर-परिवार वाले हो गए हैं, पर उनकी कोई बात
नहीं पूछता। फिर अगले ही पल वह सोचने लगी कि वे कौनसा अपने घर में सुखी हैं। वे भी
फसल न होने से कर्ज़दार हो गए हैं। फिर परिवार भी उनके बड़े है।”
ऐसा सोचती हुई गुरनाम कौर चौधरी राधेश्याम की आढ़त वाली दुकान पर पहुँच गई।
वहाँ उसे पता लगा कि कई दिनों से राधेश्याम दुकान पर नहीं आ रहा। उसने राधेश्याम
को घर पर मिलने की सोची।
चौधरी राधेश्याम अपने ड्राइंगरूम में कुछ लोगों के बीच बैठा परेशान नज़र आ रहा
था।
“आ चाची!…कैसे आना हुआ?” राधेश्याम ने ड्राइंगरूम से उठ बाहर आ गुरनाम कौर को प्रणाम
करते हुए कहा।
“पुत्तर!…तेरा चाचा बहुत बीमार है। घर के राशन-पानी व कपड़ों
के लिए पाँच हजार रुपए चाहिएँ।” गुरनाम कौर ने राधेश्याम की पीठ पर हाथ फेरते हुए कहा।
“चाची, पैसे तो है नहीं। तुझे पता ही है कि पिछले चार-पाँच
साल से फसलों पर पड़ी मार करके फैक्टरी भी भुरी तरह घाटे में चली गई। फिर कुछ बड़े
घर पैसे लेकर…। तू देख ही रही है, बैठक में बैठे बैंक वाले मेरे घर और फैक्टरी की
कुर्की करना चाहते हैं।” राधेश्याम ने गहरी-ठंडी साँस लेते हुए कहा।
गुरनाम कौर को अब अपना वजूद भारा-भारा लग रहा था।
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