Tuesday, 22 October 2013

विडंबना



विवेक

पापा जी, आप ऐसे न बोला करो।सुभाष ने झुँझलाते हुए अपने बुजुर्ग पिता देसराज से कहा।
अब मैंने ऐसा क्या कह दिया?बेटे के गर्म स्वाभाव से परिचित देसराज ने धीमी आवाज में कहा।
यह ग्राहक बड़े आराम से सौदा ले रहा था, आप बीच में बोल पड़े तो सब कुछ छोड़ कर चला गया।ग्राहक के चले जाने का क्रोध बेटे के माथे की त्योरियों से स्पष्ट दिखाई दे रहा था।
मैंने तो उसे यही कहा था कि उधार नहीं मिलेगा। तूने पहले ही उससे पैसे लेने हैं।देसराज ने स्पष्टीकरण दिया।
मेरी दुकान है, मैं जो मरजी करूँ। आपका इस दुकान से क्या लेना-देना। आप से कोई काम नहीं होता, न ही आपकी कोई ज़रूरत है। जाओ और घर पर आराम करो।
बेटे की यह बात देसराज को चुभ गई। वह गद्दी से उठा, अपनी लाठी उठाई और ऐनक ठीक करता हुआ घर की ओर चल दिया।
देसराज बड़ी सड़क पर चढ़ा ही था कि एक तेज़ रफ्तार ट्रक ने उसे फेट मार दी। वह वहीं सड़क पर ढ़ेर हो गया। वहाँ शोर मच गया। लोग लाश के आसपास एकत्र हो गए। एक व्यक्ति दुकान से सुभाष को बुला लाया।
अपने पिता की लाश देख, सुभाष ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा, पापा जी, यह क्या हो गया, अभी तो आपकी बहुत ज़रूरत थी।
लोगों से उसका रोना देखा नहीं जा रहा था।
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2 comments:

virendra sharma said...


मार्मिक चुभन लिए है कथा। लोक व्यवहार की झर्बेरियाँ मार डालती हैं आदमी को उम्र से पहले।

Pratibha Verma said...

बेहतरीन प्रस्तुति !!