Thursday, 17 October 2013

साझेदार



दर्शन मितवा

दस-ग्यारह वर्ष का वह लड़का अपने साइकिल पर काबू न रख पाया। वह साइकिल समेत सड़क के बीच धड़ाम से गिर गया। साइकिल के पीछे खुरजी में लदी बोतलें बिखर गईं। कुछ तो टूट कर किरचों में बदल गईं।
देखने वाले खिलखिला कर हँस पड़े।
साले से अपन-आप सँभलता नहीं…नीचे सइकिल पहले दे लिया।पहला बोला।
ऐसे ही माँ-बाप हैं, जो यूँ ही बच्चे को जानबूझ कर मरने के लिए भेज देते हैं। अभी इसकी कोई उम्र है, साइकिल पर इतना भार खेंचने की…।दूसरे ने कहा।
तीसरे व्यक्ति ने भाग कर जल्दी से लड़के को खड़ा किया और पूछा, चोट तो नहीं लगी, बेटा?
उसे अपना बेटा मक्खन याद आया तो उसने सड़क पर बिखरी पड़ी खाली बोतलें उठा-उठाकर साइकिल की खुरजी में रखनी शुरू कर दीं।
साइकिल ध्यान से चलाया कर बेटा!उसने लड़के के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा।
खाली बोतलें, पीपियाँ-पीपे, रद्दी अखबार बेच लो…थोड़ी दूर जाकर उस लड़के ने हाँक लगाई। तब उस तीसरे व्यक्ति का मन संतुष्टि से भर गया जैसे गाँवों में साइकिल पर जाकर सब्ज़ी बेचने वाला उसका बेटा मक्खन हाँक लगा रहा हो, आलू, गोभी, बैंगन लो…।
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