सुरिंदर
कैले
गरीब संतू के चार
बच्चे थे, एक लड़का और तीन लड़कियाँ। पेट पालने के लिए वह सरपंच के सीरी(फसल में
हिस्सा लेने वाला नौकर) लगा हुआ था।
लड़का सब से बड़ा है। इस वर्ष डिग्री की परीक्षा दी है।
पढ़ने में बहुत होशियार है। इस वर्ष भी अच्छे नंबर लेकर पास होने की उम्मीद है।
आगे की उच्च शिक्षा के लिए विश्वविद्यालय में दाखिला लेना चाहता है।
संतू की भी यही इच्छा है कि लड़का आगे पढ़े और अच्छी नौकरी
पर लग घर की गरीबी दूर कर दे। कई दिनों से वह सरपंच से बात करने की सोच रहा था।
उसे आस है कि सरपंच अवश्य ही उसकी मदद करेगा। आखिर उसने भी तो सारी उम्र उसकी सेवा
की है।
एक दिन उसने सरपंच से विनती कर ही दी, “सरपंच सा'ब! अपना जीतू अबकी पंद्रह पास कर लेगा।”
“भई संतू! तेरा लड़का लायक है। पढ़ने में होशियार है। पास तो
उसने हो ही जाना है।” सरपंच को भी पूरा विश्वास था।
“अब वह आगे और पढ़ना चाहता है। आपको घर की हालत का तो पता ही
है। उसकी पढ़ाई के लिए एक तो मैं पाड़ी बेच दूँगा। बाकी आप मदद कर देना। जीतू भी
आपका ही बच्चा है। कुछ बन जाएगा।”
“संतू! तुझे पता ही है, अभी पिछले साल ही तो मेंने लड़की के
हाथ पीले किए हैं। खर्च भी बहुत हो गया। थोड़े-बहुत पैसों की बात होती तो मैं जरूर
मदद करता। ऊपर की पढ़ाई का खर्चा तो लाखों में है।”
सरपंच का कोरा जवाब और लाखों के खर्च की सुन, संतू सोच में
पड़ गया। उसे पिछले दिनों अखबार में छपी एक ख़बर की याद आई, जो चौपाल में बैठे एक
बुजुर्ग ने पढ़ कर सुनाई थी।
“फिर सरपंच सा'ब, आप ऐसे करो कि
सरकारी बैंक से कर्जा ले दो। सुना है पढ़ाई के लिए सरकार लंबे समय का कर्जा देती
है। नौकरी पर लगके, जीता लौटाता रहेगा।”
संतू को आस थी की सरपंच अगर स्वयं पैसे नहीं देता तो बैंक
से कर्ज़ तो दिला ही देगा। परंतु सरपंच का जवाब सुनकर तो वह और उलझ गया।
“संतू! नौकरी कहीं धरी पड़ी है, जो जा कर उठा लेनी है।
पढ़े-लिखे नौजवान डिग्रियाँ उठाए जूते घिसाते फिरते हैं। नौकरियां तो दलितों को ही
नहीं मिलती, जाटों को किसने देनी हैं?”
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