Thursday 10 October 2013

मंदिर



जसबीर बेदर्द लंगेरी

सुरिंदर ने कोठी बनाने से पहले अपने आर्कीटैक्ट दोस्त को घर बुलाया और कहा, यार विजय! कोठी बनानी है, एक अच्छा-सा नक्शा बना दे और मुझे सब समझा भी दे।
सुरिंदर, मेरे पास कई नक्शे बने पड़े हैं। यह देख, यह अभी बनाया है। इसमें सब कुछ अपनी जगह पर पूरी तरह फिट है। पर एक चीज फालतू है, आपके काम की नहीं यह छोटा-सा पूजा वाला कमरा, क्योंकि आप हुए तर्कशील।
नहीं यार, यह कमरा तो बहुत ज़रूरी है। यह तो एक साईड पर है और छोटा भी। हमें तो यह कमरा बड़ा चाहिए, साथ में हवादार भी। इसमें हमने भी मूर्ति रखनी है, वह भी जीती-जागती, जिसके हर समय दर्शन होते रहें।सुरिंदर बोला।
जीती-जागती मूर्ति! वह कौनसी?विजय ने हैरान होते हुए कहा।
यह देख, हमारे भगवान की मूर्ति।सुरिंदर ने सोफे पर साफ-सुथरे वस्त्रों में बैठी अपनी माँ के गले में पीछे से बाँहें डालते हुए कहा।
बेटा विजय, समय चाहे बदल गया, फिर भी अभी माँओं ने सरवन बेटों को पैदा करना बंद नहीं किया।मां ने भावुक होते हुए कहा।
वाह! कमाल है भई! जिस घर में बुजुर्गों का इतना सम्मान हो, वहाँ मंदिर बनाने की क्या जरूरत है। वह तो घर ही मंदिर है…ठीक है मैं सब समझ गया। अच्छा मैं कल आऊँगा।
इतना कह विजय उठने लगा तो सुरिंदर की पत्नी चाय और बिस्कुट मेज पर रखते हुए बोली, भाई सा'ब! मंदिर से खाली हाथ नहीं जाते। यह लो प्रसाद।
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