दर्शन
जोगा
उसकी नज़र सामने गेट की ओर से लाठी के सहारे गिरती-पड़ती आ रही बुढ़िया पर
पड़ी। उसके साथ एक आदमी था जो कभी आगे कभी पीछे देख रहा था। वह जैसे बुढ़िया को
जल्दी-जल्दी वोट डालने वाले कमरे में पहुँचने के लिए कह रहा था।
अपनी बारी आने पर वह कमरे में दाखिल होते ही
बोला, “ यह मेरी माँ है जी, इसकी
वोट मैंने डालनी है। इसे दिखता नहीं, शरीर भी ठीक नहीं है।”
“अम्मा, तू यहां तक भी तो
आई है, अपनी वोट खुद ही डाल। अगर कोई अंधा या अपंग हो तो उसकी वोट फार्म भर कर
किसी दूसरे से डलवाते हैं।” अधिकारी ने कहा।
“बेटे, मेरी भी निगाह नहीं
हैं, अंदर आकर तो कुछ भी दिखाई नहीं देता। मेरे लड़के को ही दे दे पर्ची।” बुढ़िया बोली।
अधिकारी ने अधिक बहस में
न पड़ते हुए आवश्यक फार्म भरकर अपने सहायक को वोट-पर्ची जारी करने के लिए कह दिया।
बुढ़िया के बाएं हाथ की पहली उंगली पर निशान लगा कर्मचारी ने वोट-पर्ची बुढ़िया के
बेटे के हाथ में थमा दी।
लाठी के सहारे कमान-सी
बनी बुढ़िया अधिकारी के पास खड़ी हो गई।
“जा अम्मा, पास जाकर बेटे
को बता दे कि किस निशान पर मोहर लगानी है। यह तेरा अधिकार है।” अधिकारी ने कानून की बात
की।
“बेटे, वह आप ही लगा देगा
जहाँ उसकी मर्जी होगी। जब का इनका बाप गुजरा है, दोनों भाई अलग रहते हैं। बेगानों
के हाथ चढ़ गए। पिछले साल जब वोटें पड़ी, तब मैं छोटे के पास थी। उस वक्त वह अपनी
मर्जी से डाल गया था। अबकी बार इस बड़े के पास हूँ खेतों में। अब यह अपनी मर्जी से
डाल लेगा। अब तू आप समझदार है कि वक्त कैसा है। कुएं में पड़े यह कागज की पर्ची,
जिधर जी करे जाए। दो वक्त की रोटी मिलती रहे, यही बहुत है। कैसे अधिकार बेटा!” बुढ़िया का मन भर आया।
“चल, डल गई वोट।” कहता हुआ बेटा माँ को
बाजू से पकड़ कर कमरे से बाहर ले गया।
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