Sunday, 4 August 2013

मन की बात



नायब सिंह मंडेर

मैंने कितनी बार कहा है कि काम पर समय से चले जाया करो। वही बात हो गई, जिस का डर था।
क्या हो गया?शांति ने पूछा।
अपने बिल्कुल पास ही लंबरदार के बेटे ने दुकान खोल ली है। दुकान में सामान भी अपने से दुगना डाला है। मैं कब से कहता हूँ कि भाई, दुकान तो हर वक्त आदमी चाहती है। बुजुर्गों ने यूँ ही तो नहीं कहा, ‘ग्राहक और मौत का क्या पता कब आ जाए’, पर इसके कान पर जूँ ही नहीं रेंगती।
लम्बड़ों को क्या जरूरत पड़ गई दुकान करने की? चंगी-भली ज़मीन है उनके पास…और सोनू के पापा, आप यूँ ही न फिक्र किया करो। देवी माँ भली करेगी।सीतो ने अपने पति रामलाल को हौसला देते हुए कहा।
मैं कहता हूँ कि ब्याह तो दुनिया का होता है, पर यह तो नहीं कि इनकी तरह अंदर ही घुसे रहो।राम लाल ने मन की भड़ास निकाली।
मैं भी तो समझाती रहती हूँ कि भई ‘काम कर लो, काम कर लो’। पर मेरी सुनता भी तो कौन है!शांति ने राम लाल के सिर पर तेल मलते हुए कहा।
बी जी! मैं कौनसा इन्हें पकड़ कर रखती हूँ, टाइम से चले जाया करें।बहू सुनीता ने कमरे से बाहर आते हुए कहा।
बेटा! ’गर यही हाल रहा तो सारा कारोबार ठप्प हो जाएगा। फिर अपने पास कौनसी ज़मीन-जायदाद है, इस दुकान के आसरे ही कबीलदारी चलती है। ’गर यह भी…राम लाल ने गहरी साँस लेते हे कहा।
पापा जी, मैंने कब रोका है उन्हे? आप तो मुझे ही दोष दिए जा रहे हो।
देखो, कैसे चबर-चबर बोलती है! इसे छोटे-बड़े की लिहाज ही नहीं!शांति ने तेल एक तरफ रखते हुए कहा।
बी जी! आप बूढ़े होकर भी चारपाई पर चिपके रहते हो, हमारा इतना हक भी नहीं कि दो मिनट बैठ कर दिल की बात कर लें?सुनीता का गला भर आया और वह आँसू बहाती अंदर जाकर चारपाई पर जा गिरी।
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