जगतार
सिंह दर्दी
इस बार आषाढ़
चढ़ते ही बारिश शुरू हो गई थी। आज सुबह हुई बारिश ने उमस-सी पैदा कर दी थी। जितनी
देर बारिश रही, मौसम सुहावना रहा। बादल चले गए, तो सूरज चमका। सूरज की तपिश और
धरती की गर्मायश ने गर्मी दुगनी कर दी थी।
बच्चों के साथ, बाज़ार में वह बहुत मुश्किल में थी। बच्चे
जिस भी रेहड़ी के पास से गुज़रते, इच्छा जताते, ‘माँ, यह लेना है!’ उसका दिल पिघल
जाता। वह बेबस थी, मजबूर।
करियाने वाले का हिसाब करने के बाद, उसके पास केवल बीस
रुपये बचे थे। करियाने वाला और उधार देने में टालमटोल कर रहा था। इसलिए उसने पूरा
बिल चुकाना ही ठीक समझा।
बारिश के दिनों में उसके घर की हालत अक्सर और भी पतली हो
जाती थी। उसके मज़दूर पति को लगातार दिहाड़ी न मिलती। अब उसे एक सप्ताह लगातार काम
मिला था। जब दिहाड़ी नहीं मिलती, तो सब कुछ उल्टा-पुल्टा हो जाता था। दिहाड़ी लगे
चाहे न, पेट को तो गाँठ नहीं लगाई जा सकती थी।
साथ चल रही उसकी छः वर्ष की बेटी ने उसकी सलवार खींचते हुए
कहा, “माँ, ये लेना है!”
वह रुकी। उसने देखा कि उसका बेटा भी रेहड़ी के पास रुक गया
था। गोद में उठाए बच्चे को ठीक करते हुए उसने रेहड़ी वाले से पूछा, “आम क्या भाव हैं?”
“बीस रुपये किलो।”
ये उसके सामर्थ्य से बाहर थे। फिर उसने तरबूज का भाव पूछा।
तरबूज सस्ता था, सिर्फ चार रुपये किलो। उसने तरबूज तोलने को कह दिया।
इतने में सुंदर सूट पहने एक औरत रेहड़ी के पास रुकी। उसने
आमों पर नज़र डालते हुए भाव पूछा। उस औरत का बेटा रेहड़ी पर पड़े बड़े-बड़े तरबूज
देख रहा था। शायद उसे कटा हुआ लाल तरबूज अच्छा लग रहा था। आखिर उसके सब्र का बाँध
टूट गया। उसने अपनी माँ की कमीज खींचते हुए कहा, “मम्मी, यह लेना है,
लाल-लाल!”
औरत ने बच्चे को प्यार से डाँटते व समझाते हुए कहा, “बेटा, बारिश का मौसम है।
इस मौसम में तो तरबूज बीमारी का घर है। यह देख… कितने बढ़िया आम हैं। ये लेंगे,
मौसमी फल।”
यह सुनकर उसका दिल धड़कने लगा। उसने एक आह भरी।
उसने एक नज़र अपने बच्चों पर डाली और जल्दी से तरबूज को
उठाया, जिसे बच्चे बड़ी बेचैनी से देख रहे थे। फिर वह तुरंत वहाँ से चल दी।
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