डॉ.
बलदेव सिंह खहिरा
जैसे ही शादी की
रस्में पूरी हुईं, रामेश्वर प्रसाद ने भगवान को धन्यवाद दिया। बेटे की शादी आगे
नहीं डाली जा सकती थी और रामेश्वर प्रसाद की माँ सख्त बीमार थी। पर सब ठीक-ठाक
निपट गया। कल स्वागत-समारोह भी हो गया था।
आज सुबह-सुबह घर में भाग-दौड़ चल रही थी। बेटा अखिलेश और
बहू आज घूमने-फिरने के ले मसूरी जाने वाले थे।
रामेश्वर प्रसाद चाय ले कर माँ के कमरे में पहुँचे तो सन्न
रह गए। माँ ठंडी हुई पड़ी थी। वह बदहवास से खड़े थे कि अखिलेश आ गया।
“बेटे…तुम्हारी दादी…” रामेश्वर प्रसाद का गला भर आया, “तुम अगले हफ्ते चले जाना,
माँ की रस्में पूरी होने तक रुक जाओ।”
अखिलेश ने झट से दरवाजा बंद कर दिया।
“पापा…अभी किसी को नहीं पता कि दादी ने प्राण त्याग दिए हैं।
टैक्सी आ गई है, आप समझते हो न कि हमारा जाना कितना जरूरी है। क्या आप चाहते हैं
कि शादी करवा कर मैं मातम में बैठा रहूँ?”
“पर बेटे…”
“बस पापा, प्लीज आधा घंटा दादी की मौत छिपा लें, कह देना कि
वह सो रही हैं।”
अगले ही पल अखिलेश कमरे से बाहर हो गया।
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