रविंदर
रूपाल
“अरी कैलो! बड़ी प्यास लगी है, एक कदम भी नहीं चला जा रहा।” जैलो ने कहा।
कैलो और जैलो अपने सिर पर
गठरियाँ उठाए गाँव की ओर जा रही थीं।
“सरपंच की कोठी में ही
पीएंगे पानी, वहाँ तक मन करड़ा कर चलती रह।” यह कह कैलो की चाल कुछ तेज हो गई।
जब वे सरपंच की कोठी के करीब
पहुँची तो देखा, वहाँ एक टैम्पू से मार्बल उतर रहा था। वहाँ से गाँव अभी भी आधा
मील दूर था।
जब जैलो की निगाह में
टैम्पू पड़ा, तो उसने पास खड़े सरपंच के नौकर से पूछा, “बीरू, टौम्पू में से क्या
उतर रहा है?”
“टैम्पू में से तो चाची
पत्थर उतर रहा है, सरपंच साब के आँगन में लगाने के लिए।” बीरू का जवाब था।
‘पत्थर’ शब्द जैसे जैलो के
सिर पर लगा।
“आजा कैलो, पानी तो अब
अपने घर जाकर ही पीएंगे।”
“बहन! क्या बात हो गई?” पीछे आ रही कैलो ने पूछा, “अभी तो बड़ी प्यास लगी
थी।”
“अरी, यह जो टैम्पू से
पत्थर उतर रहा है न, उसने सारी प्यास बुझा दी।”
“कैसे?”
“पहले तो मैं पाँच-सात दिन
में के सरपंच का आँगन लीप जाती थी। इस पत्थर ने तो गरीबनी का दस-बीस रुपया भी मार
देना है।”
इतना कह वह और तेज हो गई, जैसे पत्थर उसका पीछा कर
रहा हो।
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