मलकीत
दर्दी
“ले बापू! अब बन गया
जुगाड़…बहुत सालों की भटकन ख़त्म हुई।” बिट्टू ने अपने सारे सर्टीफिकेट अटैची में सँभालते हुए अपने
पिता को खुशी-खुशी बताया।
“बेटे, ऐसा जुगाड़ कहाँ से बन गया?” दिलावर सिंह ने भैंस दुहने के बाद पाड़ी को थपथपाते हुए
पूछा।
ׅ“बापू, कल मैं लुधियाना
कचहरी में गया था, अपनी इंटरव्यू का पता करने। वहाँ अपने गांव की दलित बस्ती वाले
प्यारे का लड़का मिल गया। उसका ससुर बहुत बड़ा अफसर लगा हुआ है। उसने अपने ससुर से
टैलीफोन करवा कर हर हाल में नौकरी मिलने का भरोसा दिलाया है…कोई रिशवत वगैरा भी
नहीं मांगी।” बिट्टू ने एक साँस में ही
सारी कहानी बता दी।
“न बेटा! इससे तो रिश्वत की ही बात कर लेता…नौकरी मिल गई तो
पैसे वापस आ ही जाएँगे…पर मैं उनका एहसान सारी उम्र नहीं भूल सकूँगा।” दिलावर सिंह ने अपनी सफेद
पगड़ी को ठीक करते हुए कहा।
“बापू, वह कैसे?” बिट्टू ने हैरानी से अपने
पिता की ओर देखते हुए कहा।
“बेटा! इनके बाप-दादा हमारे घर काम करते रहे हे, सीर कमाया
है उन्होंने हमारे यहाँ।”
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