श्याम सुन्दर अग्रवाल
आशुतोष और मैं दोनों सहकर्मी थे। दूरस्थ पहाड़ी
क्षेत्र के दफ्तर में नियुक्ति थी। छोटा-सा नगर था। सुविधाएँ बहुत कम थीं। इतनी
दूर की नियुक्ति को विभाग में सजा के तौर पर ही देखा जाता था।
खाना हम दोनों में से किसी को भी पकाना नहीं आता
था। इसलिए हमने दफ्तर के पास ही एक चाय वाले को हमारे लिए खाना बनाने के लिए मना
लिया था। सुबह नाश्ता हम अपने कमरे में ही कर लेते। लेकिन दोपहर और रात्रि के खाने
के लिए चाय वाले के पास ही जाना पड़ता।
चाय वाले ने पी.सी.ओ. भी लगा रखा था। आसपास के लोग
उसके पी.सी.ओ पर आकर फोन कर लेते थे। रात को जब भोजन करने जाते तो मैं भी वहीं से
कभी-कभार घर फोन कर लेता। लेकिन आशुतोष हर रात घर पर फोन करता। मैंने कई बार उससे
पूछा भी कि वह रोज घर पर ऐसी क्या बात करता है? लेकिन वह बात टाल
जाता। वह खाना खाने से पहले फोन जरूर करता।
मैं एक बात बराबर नोट कर रहा था कि आशुतोष नाश्ते व
दोपहर के खाने के वक्त सुस्त सा दिखता लेकिन रात का खाना वह खुल कर लेता।
एक रात पी.सी.ओ का फोन खराब था। फोन खराब देख
आशुतोष बेचैन हो गया। उसने भोजन भी अनमने मन से ही किया। कमरे में वापस जाते वक्त
मैंने कहा, “आशु यार, कुछ तो है जो तुम मुझसे छिपा रहे हो? क्या तुम मुझे अपना मित्र नहीं मानते?”
‘नहीं, नहीं, ऐसा कुछ
नहीं। बात तो बहुत छोटी-सी है। छुपाने लायक भी कुछ नहीं है…”
“फिर तुम बताते क्यों
नहीं कि तुम रोज घर पर क्या बात करते हो?”
“बात तो कुछ नहीं यार!
बस एक कर्ज है जिसे उतारने का प्रयास करता रहता हूँ।”
“कैसा कर्ज?
“…माँ का कर्ज है?”
“माँ का कर्ज! यार माँ
का भी कोई कर्ज होता है?”
“हाँ, मुझ पर तो माँ
का ही कर्ज है…बचपन से माँ जब तक मुझे खाना नहीं खिला देती थी, खुद खाना नहीं खाती
थी। जब से मैं कमाने लगा हूँ, मैंने भी नियम बना लिया कि पहले माँ भोजन करेगी फिर
मैं…बस इसलिए ही फोन कर माँ से पूछ लेता हूँ कि उसने भोजन कर लिया या नहीं। वह ‘हाँ’
कह देती है तो खाना स्वाद लगता है।”
मैंने देखा आशुतोष की
आँखें नम हो गई थीं।
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