Saturday, 27 April 2013

जागृति



दर्शन सिंह बरेटा

धार्मिक संस्थाओं का उचित प्रबंध करने वाली कमेटी का चुनाव सिर पर आ चुका था। कई अपनी उम्मीदवारी सुनिश्चित करने के लिए बड़े नेताओं के पास पहुँच कर रहे थे।
प्रत्येक क्षेत्र के लिए योग्य उम्मीदवारों के नामों पर सहमति बनाने के लिए बैठक शुरू हो चुकी थी। दिग्गज नेता बैठक में शामिल सदस्यों के विचार ध्यान से सुन रहे थे।
इस बार विपक्ष पहले के मुकाबले अधिक शक्तिशाली लग रहा है। मुकाबला बराबरी का रहेगा। फैसला ध्यान से करना।एक बड़ी उम्र के पुराने कार्यकर्ता ने अपने अनुभव के आधार पर कहा।
बिल्कुल ठीक। राजनीति में निपुन्न, दो पैसे खर्चने वाला और ज़रूरत पड़ने पर दो-दो हाथ करने वाला आदमी ही चुनाव जीत सकता है। चुनाव के माहौल का क्या पता…।राजनीतिक पैंतरेबाज़ कार्यकर्ता ने अपना तीर छोड़ा।
एक तेज़तर्रार उभरते नेता ने सिरे की बात करते हुए कहा, केवल शरीफी-शरूफी नहीं चलती अब चुनाव में। चुनाव चाहे कोई भी हो, अब टेढ़े-मेढ़े ढ़ंग से ही जीते जाते हैं। यूँ ही कहीं केवल धार्मिक प्रवृत्ति देखकर…।
बैठक में खुसुर-फुसुर होने लगी। तीन-चार बड़ी उम्र के व्यक्ति मीटिंग में से उठकर जाने लगे।
क्या बात, ऐसे कैसे बीच में ही छोड़ कर जा रहे हो…कोई बात तो बताओ?दिग्गज नेता को चुप तोड़नी पड़ी।
बात तो तब बताएँ अगर कोई मुद्दे की बात हुई हो। यह बैठक धार्मिक-कमेटी के चुनाव की है या फिर…?
पैसा, नशा, टेढ़-मेढ़, लड़ाई-झगड़ा, राजनीतिक पैंतरेबाज़ी…अब और क्या धार्मिक-कमेटी के चुनाव में शामिल करोगे।कहते हुए बुजुर्ग की साँस उखड़ गई।
आ भई चलें। परमात्मा इन्हें सुमति बख़्शे। धार्मिक प्रवृति वालों की अब यहाँ कोई ज़रूरत नहीं रह गई।कहते हुए वे मीटिंग से चले गए।
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