विवेक
“न मारो मम्मी, न मारो!” दस वर्षीय भोलू ने अपनी
माँ के आगे हाथ जोड़ते हुए कहा।
“नहीं, मैं तुझे अभी बताती हूं। अब खेलेगा उसके साथ?” कहते हुए ऊषा देवी ने डंडा लड़के के टखनों पर मारते हुए
कहा।
डंडे की मार से लड़का चीख उठा। ऊषा देवी ने मारने के लिए
फिर से हाथ उठाया ही था कि उसके पति कृष्णकाँत शर्मा ने आकर उसका हाथ पकड़ लिया।
पिता को आया देख, बचाव के लिए भोलू उसकी लातों से लिपट गया।
“अब किधर जाता है? तुझे कितनी बार कहा, पर तुझ पर कोई असर नहीं।” ऊषा देवी फिर भोलू की ओर
लपकी।
“क्या बात हो गई? क्यों लड़के को
मार रही है?” सहमे हुए भोलू की पीठ पर
हाथ रखते हुए कृष्णकाँत ने पत्नी से पूछा।
“होना क्या है, जब देखो मज्हबियों के लड़के के साथ खेलता
रहता है। उसकी बाँह में बाँह डाले फिरता है। कभी खुद उसके घर चला जाता है, कभी उसे
अपने घर ले आता है…मुझे नहीं ये बातें अच्छी लगतीं…इसे बहुत बार समझाया, पर सुनता
ही नहीं। कहता है, वह मेरा दोस्त है…दोस्त ही बनाना है तो अपनी जात-बिरादरी वाला
देख ले…।” ऊषा देवी ने भोलू को
घूरते हुए कहा।
“छोड़ ऊषा, यह कौनसी बात हुई। हम भी दिहाड़ी करके खाने वाले
हैं, वे भी मज़दूरी करके पेट भरते हैं। बता फिर फर्क कहाँ हुआ? हम भी गरीब, वे भी गरीब। हमारी तो साँझ हुई। जात-बिरादरी
ने रोटी दे देनी है! रोटी तो मेहनत-मज़दूरी करके ही खानी है। यूँ ही न लड़के को
मारा कर, खेलने दे जिसके साथ खेलता है।”
इतना कह उसने ऊषा देवी के हाथ से डंडा पकड़ कर फेंक दिया।
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2 comments:
आपकी पोस्ट 21 - 03- 2013 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
कृपया पधारें ।
बेह्तरीन अभिव्यक्ति .शुभकामनायें.
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