Monday, 21 January 2013

चुप का दर्द



दर्शन सिंह बरेटा

हाय रे! हमें अकेला छोड़ कर क्यों चला गया, सेवक बेटा…हाय…! हमसे कौनसे युग का बदला लिया रे बेटे…हाय!…हाय!
सेवक का माँ का रुदन रुक नहीं रहा था। थोड़ी सी बात सुनकर ही वह बिलख पड़ती।
सेवक की पत्नी की आँखें पता नहीं क्यों बिल्कुल भी नम न हुईं। वह बस टिकटिकी लगा कर इधर-उधर देखती रहती। वह तो जैसे पत्थर की ही हो गई। रो रहे बच्चों को चुप करवाने के ले ही बस हूँ-हाँ करती। नहीं तो…।
नशेबाज सेवक चढ़ती उम्र में ही भगवान को प्यारा हो गया। उसके भोग की रस्म पर संबंधी एकत्र हुए।
सेवक के माँ-बाप को बच्चों के भविष्य से अधिक बहू की चिंता थी। भरी दोपहरी-सी जवानी की उम्र और उसके लगातार गुमसुम रहने की चिंता कहीं अधिक गंभीर लगती थी।
आए रिश्तेदारों से वे अपनी चिंता प्रकट करते, लेकिन बहू हरिंदर चुपचाप बैठी सुनती रहती। उसने अपने दिल का भेद जरा भी नहीं खोला।
हरिंदर के चाचा ने हिम्मत कर दोनों पक्षों का फ़ैसला बताने को कहना शुरू किया, देख भई हरिंदर! जो हुआ वह तो किसी के बस का नहीं था। वाहेगुरु की करनी माननी ही पड़ती है। सबने सोच-समझ कर फैसला किया है कि तू सेवक के चाचा के लड़के सरदूल के साथ लगकर बच्चे पाल ले। तेरी उम्र को सहारा भी मिल जाएगा। लड़का थोड़ा-बहत नशा करता है…वाहेगुरु की कृपा होगी, आप ही छोड़ देगा। तू पंचायत का फैसला मान ले।
बस-बस, रहम करो…मुझ पर और मेरे बच्चों पर, बस…क्यों मुझे खाई में से निकाल कर कुएँ में धकेल रहे हो। ज़रूरत नहीं मुझे किसी नशेड़ी के सहारे की। आठ-दस साल में हो जाएगा मेरा बेटा गबरू। तब तक मैं अपने सास-ससुर के साथ रह कर दिन काट लूँगी। मुझे मेरे रहम पर छोड़ दो। मैं किसी को परेशान नहीं करती। नहीं किसी की पगड़ी को…।
हरिंदर अपनी बात पूरी न कर पाई। उसका गला भर आया। वह सास के गले लग कर कितनी ही देर तक रोती रही।
अब कोई सवाल बाकी न रहा था।
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