Tuesday, 1 January 2013

बापू! लगी तो नहीं?



डॉ.बलदेव सिंह खहिरा

बच्चे का जन्म नजदीक आने पर करतारा अपनी पत्नी को उसके मायके छोड़, घर वापस जाता कह गया था, भजन कौर! अगर अबकी बार भी लड़की हुई तो मैं तुझे लेने नहीं आऊँगा। यहीं पर रहना।
परिवार की प्रार्थनाओं की कोई सुनवाई न हुई। वही हुआ जिसका डर था। करतारे की प्रतीक्षा में तीन वर्ष निकल गए। भागती-फिरती सुक्खी कई बार अपने बापू के बारे में पूछ लेती। लेकिन माँ और नानी का उदास चेहरा देख, वह चुप कर जाती।
उधर करतारे के परिवार व मोहतबर लोगों ने उसे अपनी पत्नी व बेटी को लेने भेज ही दिया। बस अड्डे से गाँव की दूरी तीन मील थी। अड्डे पर बैठकर ही तीनों ने चाय-पानी पीया।
करतारे ने वहाँ से एक कसी खरीद ली। बोला, पुरानी टूट गई…यहाँ से बढ़िया मिल जाती है। मां-बेटी को साथ ले करतारा गाँव की ओर चल दिया। आधा रास्ता तय कर तीनों एक शीशम के वृक्ष की छाँव में बैठ गए। करतारा थोड़ी दूर जाकर एक गढ़ा खोदने लगा। उसने मन में धार रखा था कि लड़की को गाँव नहीं लेकर जाएगा। गला दबा कर मार, यहीं गढ़े में दबा जाएगा।
ऐसे विचारों में खोए करतारे ध्यान बँट गया। कसी ज़मीन में दबे एक पत्थर से टकरा कर उसकी टाँग पर जा लगी। दर्द से बेहाल वह वहीं बैठ गया। अचानक कान के पास एक तोतली-सी मीठी आवाज़ सुन वह चौंक पड़ाः
बापू! लगी तो नहीं? लाओ फूक माल दूँ…थीक हो जाएगा…।
करतारे की आँखों से पश्चाताप के आँसू बह चले। उसने बेटी को गले से लगा लिया।
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