Wednesday, 7 November 2012

औलाद



उषा दीप्ति

वर्तमान समय में जि़न्दगी की रफ्तार इतनी ते़ज और उलझन भरी हो जाएगी, यह किसी ने सोचा भी नहीं था। करमा अब काफ़ी बीमार रहने लग पड़ा था। आँखों की नज़र भी कमज़ोर हो गई थी। इस बुढ़ापे में, औलाद के बावजूद भी वहे अकेले थे। आपस में एकदूसरे के साथ दुख बाँटने के सिवा, उनके पास बचा ही क्या था।
बेटा परदेश में था। चाहे उसकी खुशी और आगे तरक्की करने के लक्ष्य से ही, करमे ने उसे बाहर जाने को हाँ कही थी।
बेटे को जब बीमारी के बारे में पता चला तो पत्नी ने कहा, ‘‘इतनी सी बीमारी  के लिए लाखों रुपए की टिकट खर्च करोगे। छोड़ो, फ़ोन पर ही पता कर लेते हैं।’’
‘‘हाँ! बापू से बात हुई है, वह भी यही कहता है, रहने दो....पर उसकी आवाज़ में उदासी थी।’’
 बेटे ने भी उदास होते कहा, ‘‘बापू ने तो सारी उमर यही कहा है, हमारी खुशी ही देखी है। पर मेरा मन ही नहीं मानता।’’ कहकर वह बापू से मिलने के लिए तैयारी में लग गया।
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