विनोद मित्तल समाना
“तू
मुझे रोकेगी? मुझे? मैं तेरा घरवाला हूँ, घरवाला; इस घर का मालिक। मैं जो चाहूँ कर
सकता हूँ। तू चुप करके छिपा कर रखे गहने दे दे।” धर्मे ने अपनी
घरवाली को बालों से पकड़ते हुए कहा।
“रब्ब की सौगंध! मेरे पास कुछ नहीं है,
तुम्हें देने के लिए। जो था, वह तुम पहले ही लेजा चुके हो।” उसकी पत्नी ने
विनती-सी करते हुए कहा।
‘तड़ाक’ से उसने अपनी
पत्नी के थप्पड़ जड़ दिया। तभी उनका बेटा जीता भी आ गया।
“किधर गया था रे, बड़े पढ़ाकू? कहाँ से
लाया है तू यह किताब?” धर्मे ने जीते के हाथ में किताब देख कर
पूछा। फिर वह उसकी जेबें टटोलने लगा। जेब में से कुछ रेजगारी निकल आई। तब वह गरजता
हुआ बोला, “देख,
साला यह भी अपनी माँ जैसा हो गया। मुझ से छिपा कर पैसों की किताबें खरीदता फिरता
है। बात सुन ले रे, तूने कल से स्कूल नहीं जाना। यूँ ही खर्च करी जाता है। मैं कल
तुझे रामू के ढ़ाबे पर लगवा कर आऊँगा।”
निठल्ले शराबी बाप ने उस से
रेजगारी छीन ली और धक्का देकर बाहर चला गया।
“बेटे, तुझे ये पैसे कहाँ से मिले? और तू
सवेर का कहाँ था?” जीते
की माँ ने आँखें पोंछते हुए कहा।
“माँ, आज रविवार था। मेरे पास किताब नहीं
थी। स्कूल की फीस भरने की भी कल आखरी तारीख है। मुझे पता था कि तुम्हारे पास पैसे
नहीं हैं, इसलिए आज भट्ठे पर काम करके कुछ पैसे कमा कर लाया था, वे बापू ने ले
लिए।” जीते
ने बताया तो माँ ने बेटे को अपने सीने से चिपका लिया।
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