दर्शन सिंह बरेटा
वृद्धाश्रम में सुबह अखबार के पन्ने पलटते हुए उसका ध्यान
बीते जीवन की ओर चला गया। कुछ दिनों से वह बेचैनी में जी रहा था। दो बेटे जन्मे,
पाले-पोसे, पैरों पर खड़े किए। बड़े को विदेश में सैट करने के लिए मकान समेत
कई-कुछ बेचना पड़ा। वह तो बस वहीं का ही होकर रह गया।
‘चलो. उसके तो कोई बस नहीं। पर
यहाँ वाला तो सबकुछ कर सकता है। अच्छे-भले दोनों जने नौकरी लगे हैं, कोई कमी
नहीं।’ पता नहीं क्या-कुछ वह बुड़बुड़ा गया।
‘बहू का हाल देख लो, जब जरूरत थी तो
‘बापू जी, यह कर दो, वह कर दो। अब मुन्ने को घुमा लाओ। अब मैं दफ्तर चली हूँ, जरा
ध्यान रखना।’ आप परेशानियाँ उठा चाव से पोते को पाला। मैं भी परिवार में रहता, खुद
को किस्मत वाला समझता।
बच्चे के स्कूल जाने में अभी कई
महीने बाकी थे। पहिले ही दोनों ने बडे शहर में अपनी बदली करवाने के लिए उपाय करने
शुरू कर दिए। कहते, बड़े शहर के अच्छे स्कूल में बच्चे का भविष्य उज्जवल रहेगा।
मैंने कितना कहा, ‘तू भी तो यहीं
पढ़ कर नौकरी लगा है। सब कुछ तो है यहाँ।’
बोला, ‘नहीं बापू जी, हमारे वक्त
बात और थी। अब ज़माना बदल गया ।’
दोनों की बदली हो गई, मुझपर
बिपता आ गई। दफ्तर से आते ही बहू ने फरमान सुनाया, ‘बापू जी, हमने दो-चार दिन में
शहर चले जाना है। वहाँ बड़े मकान का किराया बहुत ज्यादा है। अकेले आपके लिए इस
मकान का किराया देना कोई समझदारी नहीं। अगर आप अब वृद्धाश्रम में…।’
“बस-बस, मैं समझ गया। ठीक है, मैं कल ही
चला जाऊँगा। तुम खुश रहो, मेरा क्या है।”
“बाबा जी, किसे खुश रख रहे हो? चाय पी
लो।” आश्रम
के रसोइये ने कहा तो उसकी तंद्रा भंग हुई।
“नहीं-नहीं, कुछ नहीं।” कहते
हुए उसने चाय का कप उठा लिया।
नई पीढ़ी की आधुनिक सोच का सताया
वृद्ध अपने आँसू बहने से रोक नहीं सका।
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