सुरिंदर कैले
शरनजीत का बचपन से ही एक सपना था–अपना
मनपसंद घर।
बचपन से जवानी
और जवानी में शादी हो जाने पर उसका सपना बार-बार उसके मस्तिष्क में दस्तक देता
रहा। वह और उसका पति अपना घर बनाने के लिए एक-एक पैसा जोड़ने की कोशिश करते, पर
बैंक-बैलैंस वहीं का वहीं रहता। बच्चों का पालन-पोषण, पढ़ाई, शादी आदि के खर्चों
ने उन के हाथ बाँध कर रखे। वे मकान तो बदलते रहे, पर घर नसीब न हुआ। किराए के
मकानों में उन्हें तरह-तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता। इसलिए किराए के
मकान उन्हें कभी भी घर न लगते।
वह सोचती– अपने
घर में मैं मनपसंद रंग करवा सकूँगी। जिस दीवार पर चाहूँ कील गाड़ कर तस्वीर टाँग
सकूँगी। आवश्यकता अनुसार अलमारियाँ, खुली रसोई व बाथरूम बनवा सकूँगी। और तो और
अपने घर में अपनी मर्जी के अनुसार रह सकूँगी, जो चाहे करूँगी। ऊँचा बोलूँगी, शोर
और धमाचौकड़ी मचाऊँगी। कोई मुझे रोकने-टोकने वाला नहीं होगा। मकान मालिक की
बंदिशों से मुक्त मैं अपनी मर्जी की मालिक होऊँगी।
शरनजीत अपने
बनाए नए और सुंदर घर के लॉन में चहल कदमी करती बचपन के सपने को याद कर रही थी। यह
घर रिटायरमेंट पर मिले पैसों से ही संभव हो सका था। पर वह संतुष्ट नहीं थी। बच्चों
की जिद्द के आगे उसे कई जगह समझौता करना पड़ा था। फिर भी वह खुश है कि नया मकान
उसके अपने घर जैसा लगता है। नरम-नरम घास पर चहल कदमी करना उसे अच्छा लगता है। वह
मानसिक खुशी में मस्त थी। इसी मस्ती के आलम में उसने एक गीत का मुखड़ा ऊँची सुर
में गाना शुरु कर लिया।
“मम्मी, प्लीज
चुप करो!” भीतर
से उसके बेटे ने चीखते हे कहा, “शोर सुनकर मुन्नी जाग जाएगी।”
वह चुप कर गई।
उसके भीतर एक टीस-सी उठी, मेरा गाना भी बच्चों को शोर लगता है।
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