बिक्रमजीत नूर
सुखपाल को नहलाने की रस्म अदायगी हो रही थी। चाची, ताईं, भाभियाँ व पड़ोसनें उसे उबटन लगा रही थीं। शादी के गीतों के साथ-साथ हँसी-ठठ्ठा भी चल रहा था।
बाराती कुछ तो तैयार बैठे थे तथा कुछ तैयार हो रहे थे। तस्वीरें खींची जा रही थीं। खुशी में सुखपाल की माँ के पाँव तो जमीन पर ही नहीं लग रहे थे। उसका पिता दूर बैठा मूँछों को ताव दे रहा था।
खुशी के इस माहौल में इतना बड़ा अपशकुन हो जाएगा, ऐसा तो माँ ने सोचा तक न था। पड़ोसियों की विधवा बहू चरनी पता नहीं कहाँ से आ टपकी थी। उसे तो दुल्हे के सामने ही नहीं आना चाहिए था। पर वह थी कि मुस्कराती हुई सुखपाल की ओर ही बढ़ी जा रही थी। सितम की बात यह थी कि सबके रोकने के बावजूद उसने सुखपाल के सिर, चेहरे व शरीर पर उबटन लगा दिया था। सुखपाल भी बहुत खुश नज़र रहा था। पर माँ गुस्से में लाल-पीली हो रही थी।
“चल दफा हो परे, तू कहाँ से आ गई कर्मजली?” चरनी को बाँह से पकड़ कर माँ बाहर की ओर ले चली तो सुखपाल ऊँची आवाज में बोला, “मम्मी, भाभ को यहीं रहने दो।”
“नहीं बेटे, इसने यहाँ आकर बड़ा अपशकुन किया है।”
“मम्मी जी, मेरी नहाई-धोई के समय यहाँ आने के लिए भाभी को मैने ही कहा था।”
माँ का चेहरा उतरा हुआ था।
सुखपाल ने चरनी की ओर देखते हे कहा, “भाभी, अगर आप आज नहीं आतीं तो बहुत बड़ा अपशकुन हो जाना था।”
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