डॉ. बलदेव सिंह खहिरा
अरसे बाद घर के सभी सदस्य, दो बहनें व तीन भाई परिवार सहित एकत्र हुए थे। माहोल बड़ा गमगीन व संजीदा था। खामोशी को भंग करते बड़ी बहन तरुणा ने कहा, “भैया! याद है? छोटे होते छुपा-छुपाई खेलते हुए मैं उस अलमारी के ऊपर चढ़ कर छिप गई थी और फिर वहीं सो गई थी।”
बड़े भाई वरुण के चेहरे पर फीकी-सी मुस्कान उभरी। उस से छोटी करुणा सब से छोटे करण के कंधे पर हाथ रखकर बोली, “और यह भोला बादशाह अपने खेल में ऐसे ही एक-दूसरे से टकराता फिरता था। इसे कहना छिप जा, तो यह कोने में जा खड़ा होता और आँखें मीच लेता।”
गम के बादल कुछ छंटने लगे। तरुणा फिर बोली, “यादों के ये खज़ाने सदा हमारे साथ रहेंगे।”
सब से बड़ा संजीव सिर हिलाता हुआ फुसफुसाया, “पर जो खज़ाना हमने आज गंवा लिया है, वह फिर कभी नहीं मिलेगा!” फिर कुछ संभलकर चेहरा पोंछता हुआ बोला, “मुझे सारी उम्र यही पछतावा और दुःख रहेगा कि हम सब माँ के पेंशन-लाभ से मिलने वाले पैसों के लिए आपस में लड़े। माँ को इससे बहुत दुःख पहुँचा…और इससे भी बड़ी बात कि उसके बाद हम उसे मिले भी नहीं…माँ ने कितने संदेशे भेजे…पत्र लिखे, पर हम…।” संजीव की आँखों से आँसू बहने लगे।
करण जिसके पास माँ रहती थी, बोला, “माँ को तो तुम सबका वियोग ही ले गया…आखरी समय भी उसकी नज़रें दरवाजे पर ही लगी रहीं…।”
शेष भाई-बहन अपनी व्यस्तता तथा आने के बनाए कार्यक्रमों के बारे में बताने को उत्सुक दिखाई दिए। पास बैठे उनके चाचा जी सब देख-सुन रहे थे। दीर्घ उच्छवास छोड़ते हुए वे उठ गए और जाते हुए बोले, “एक विधवा माँ ने तुम सबको पाल-पोस, लिखा-पढ़ा कर योग्य बनाया…तुम्हें परिवार वाला बनाया और तुम सब एक माँ को नहीं संभाल सके…भीतर ही भीतर तड़पती, कुरलाती बेचारी चली गई…आज ये बातें सुना कर किसे सुख देने आए हो?…जाओ, अपने घर जाओ…”
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