नायब सिंह मंडेर
मुख्य गली की नुक्कड़ पर बनी बैठक में सामान व किताबें बिखरी पड़ी थीं। टूटी हुई मेज व कुर्सी पर पीठ लगा कर बैठा रामदास माथे पर आए पसीने को टूटे हुए दीवान की सीट से पोंछता हुआ बोला, “बेसमझ, अक्लहीन लोगो, तुमसे तो गिरगिट भी ठीक होता है।”
बाहर से खेल कर घर आई रामदास की पोती बबली अपने दादा के कमरे का सामान टूटा देखकर हक्की-बक्की रह गई, “दादा जी, यह क्या हो गया? वे कौन लोग थे जो शोर मचाते हुए जा रहे थे?” बेबस बबली ने अपने दादा से सवाल किए।
“पता नहीं कौन बेसमझ हैं?” रामदास ने गुस्से में कहा।
बबली के बालमन को समझ न आई कि हर समय हँसते रहने वाले दादा जी आज इतने नाराज व दुखी क्यों हैं? बच्चों की तरह संभाला सामान किसने तोड़ा है? वह बिना कुछ बोले ही बिखरी पुस्तकें इकट्ठी करने लगी।
“मैंने कितनी बार कहा है, आप की बातें लोगों को समझ नहीं आती। दुनिया तो अब पगला गई है। जो वरगला लेता है, उस के पीछे ही चल देती है।” लक्ष्मी ने पति की हालत देखकर आह भरी।
“मोटा दिमाग है इनका। सच-झूठ का पता किए बिना ही कोहराम मचा देते हैं। भगवान सुबुद्धि दे इन्हें।” रामदास ने बड़ी विनम्रता से कहा।
“मैं कहती हूँ, जो लोग उस दिन आपकी हाँ में हाँ मिलाते थे कि रामसेतु प्राकृतिक है, अपने आप बना है। आज इस बात पर भड़क कैसे गए?”
“तब लोग अकेले थे, स्वतंत्र। प्रभु को सच्चे मन से चाहने वाले। आज इन्हें किसी नेता ने पट्टी पढ़ा दी होगी, वोटों की खातिर।” रामदास की आँखों में आँसू आ गए।
“आप क्यों मन खराब करते हो, जो सुबह हो गया, उसे भूल जाओ। मरने दो जो मरता है।” दुखी हुई लक्ष्मी बोली।
“लक्ष्मी, मैं अपने सामान के टूटने पर दुखी नहीं हूँ, न ही अपनी हालत पर। मुझे तो यह चिंता है कि अंधविश्वास और नेताओं के मकड़जाल से इस दुनिया को कब राहत मिलेगी।” कहते हुए रामदास ने आँखें मूँद लीं।
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