Tuesday, 24 January 2012

मकड़ जाल


नायब सिंह मंडेर

मुख्य गली की नुक्कड़ पर बनी बैठक में सामान व किताबें बिखरी पड़ी थीं। टूटी हुई मेज व कुर्सी पर पीठ लगा कर बैठा रामदास माथे पर आए पसीने को टूटे हुए दीवान की सीट से पोंछता हुआ बोला, बेसमझ, अक्लहीन लोगो, तुमसे तो गिरगिट भी ठीक होता है।
बाहर से खेल कर घर आई रामदास की पोती बबली अपने दादा के कमरे का सामान टूटा देखकर हक्की-बक्की रह गई, दादा जी, यह क्या हो गया? वे कौन लोग थे जो शोर मचाते हुए जा रहे थे?बेबस बबली ने अपने दादा से सवाल किए।
पता नहीं कौन बेसमझ हैं?रामदास ने गुस्से में कहा।
बबली के बालमन को समझ न आई कि हर समय हँसते रहने वाले दादा जी आज इतने नाराज व दुखी क्यों हैं? बच्चों की तरह संभाला सामान किसने तोड़ा है? वह बिना कुछ बोले ही बिखरी पुस्तकें इकट्ठी करने लगी।
मैंने कितनी बार कहा है, आप की बातें लोगों को समझ नहीं आती। दुनिया तो अब पगला गई है। जो वरगला लेता है, उस के पीछे ही चल देती है।लक्ष्मी ने पति की हालत देखकर आह भरी।
मोटा दिमाग है इनका। सच-झूठ का पता किए बिना ही कोहराम मचा देते हैं। भगवान सुबुद्धि दे इन्हें।रामदास ने बड़ी विनम्रता से कहा।
मैं कहती हूँ, जो लोग उस दिन आपकी हाँ में हाँ मिलाते थे कि रामसेतु प्राकृतिक है, अपने आप बना है। आज इस बात पर भड़क कैसे गए?
तब लोग अकेले थे, स्वतंत्र। प्रभु को सच्चे मन से चाहने वाले। आज इन्हें किसी नेता ने पट्टी पढ़ा दी होगी, वोटों की खातिर।रामदास की आँखों में आँसू आ गए।
आप क्यों मन खराब करते हो, जो सुबह हो गया, उसे भूल जाओ। मरने दो जो मरता है।दुखी हुई लक्ष्मी बोली।
लक्ष्मी, मैं अपने सामान के टूटने पर दुखी नहीं हूँ, न ही अपनी हालत पर। मुझे तो यह चिंता है कि अंधविश्वास और नेताओं के मकड़जाल से इस दुनिया को कब राहत मिलेगी।कहते हुए रामदास ने आँखें मूँद लीं।
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Wednesday, 18 January 2012

अनमोल ख़ज़ाना

श्याम सुन्दर अग्रवाल

अपनी अलमारी के लॉकर में रखी कोई वस्तु जब पत्नी को न मिलती तो वह लॉकर का सारा सामान बाहर निकाल लेती। इस सामान में एक छोटी-सी चाँदी की डिबिया भी होती। सुंदर तथा कलात्मक डिबिया। इस डिबिया को वह बहुत सावधानी से रखती। उसने डिबिया को छोटा-सा ताला भी लगा रखा था। मुझे या बच्चों को तो उसे हाथ भी न लगाने देती। वह कहती, इसमें मेरा अनमोल ख़ज़ाना है, जीते जी किसी को छूने भी न दूँगी।
एक दिन पत्नी जल्दी में अपना लॉकर बंद करना भूल गई। मेरे मन में उस चाँदी की डिबिया में रखा पत्नी का अनमोल ख़ज़ाना देखने की इच्छा बलवती हो उठी। मैने डिबिया बाहर निकाली। मैने उसे हिला कर देखा। डिबिया में से सिक्कों के खनकने की हल्की-सी आवाज सुनाई दी। मुझे लगा, पत्नी ने डिबिया में ऐतिहासिक महत्त्व के सोने अथवा चाँदी के कुछ सिक्के संभाल कर रखे हुए हैं।
मेरी उत्सुकता और बढ़ी। कौन से सिक्के हैं? कितने सिक्के हैं? उनकी कितनी कीमत होगी? अनेक प्रश्न मस्तिष्क में उठ खड़े हुए। थोड़ा ढूँढ़ने पर डिबिया के ताले की चाबी भी मिल गई। डिबिया खोली तो उसमें से एक थैली निकली। कपड़े की एक पुरानी थैली। थैली मैने पहचान ली। यह मेरी सास ने दी थी, मेरी पत्नी को। जब सास मृत्युशय्या पर थी और हम उससे मिलने गाँव गए थे। आँसू भरी आँखों और काँपते हाथों से उसने थैली पत्नी को पकड़ाई थी। उसके कहे शब्द आज भी मुझे याद हैं–‘ले बेटी ! तेरी माँ के पास तो बस यही है देने को।’
मैने थैली खोल कर पलटी तो पत्नी का अनमोल ख़ज़ाना मेज पर बिखर गया। मेज पर जो कुछ पड़ा था, उसमें वर्तमान के ही कुल आठ सिक्के थे– तीन सिक्के दो रुपये वाले, तीन सिक्के एक रुपये वाले और दो सिक्के पचास पैसे वाले। कुल मिला कर दस रुपये।
मैं देर तक उन सिक्कों को देखता रहा। फिर मैने एक-एक कर सभी सिक्कों को बड़े ध्यान से थैली में वापस रखा ताकि किसी को भी हल्की-सी रगड़ न लग जाए।
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Monday, 9 January 2012

लाल बूटियों वाला सूट


जसबीर बेदर्द लंगेरी

पति की मौत के भोग के समय गाँव के सभी लोगों ने जसप्रीत के सिर पर हमदर्दी भरा हाथ रखा और इसे ‘भगवान की मर्जी’ कह ढाढ़स बँधाया। उसे सभी लोग अपने बाजुओं जैसे लगे। उनके साहस से ही उसने अपनी बिखरी हुई ज़िंदगी का छोर फिर से पकड़ लिया।
कुछ समय बाद जसप्रीत को पति की जगह दफ्तर में क्लर्क की नौकरी मिल गई। संयोग से दफ्तर की अधीक्षक भी एक सुलझी हुई औरत थी।
जसप्रीत, ज़िंदगी में कई घटनाएँ घटती हैं। कुछ तो जल्दी भूल जाती हैं, कुछ देर से…और कुछ बहुत भुलाने से भी नहीं भूलतीं। पर इसके बावजूद, ज़िंदगी और रंगों का रिश्ता बहुत गहरा होता है। रंगों के बिना ज़िंदगी का कोई अर्थ नहीं। मेरा भाव यह है कि तूने ज़िंदगी को जो बेरंग-सा बना रखा है, वह ठीक नहीं। ’गर तू बुरा न माने तो ये सफेद-से कपड़े पहन कर मत आया कर। अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है!एक दिन लंच के समय अधीक्षक ने जसबीर को प्यार से कहा
बुरा क्या मनाना है, मैडम जी! दिल तो मेरा भी वही कहता है, जो आपने कहा। पर मैं डरती हूँ कि गाँव वाले क्या कहेंगे। विधवा होना औरत के लिए श्राप है।जसप्रीत की आँखें भर आईं।
लोगों की परवाह नहीं करते। लोगों की खातिर अपनी बची हुई खुशियों की बलि मत दे। सम्मान से जीना सीख।अधीक्षक ने जसप्रीत के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा।
फिर वे कोसी-कोसी धूप में से उठकर अपनी-अपनी सीटों पर चली गईं।
जसप्रीत देर रात तक सोचती रही। सुबह बच्चों को स्कूल भेजने के बाद वह विशेष रूप से तैयार हुई। उसने संदूक में दबा पड़ा पति का लाया हुआ लाल बूटियों वाला सूट पहना। गली में लोगों की तिरछी निगाहों की परवाह न करते हुए, वह ड्यूटी पर जाने के लिए बस-स्टैंड की ओर चल दी।
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Sunday, 1 January 2012

रूठी औलाद


डॉ. बलदेव सिंह खहिरा
अरसे बाद घर के सभी सदस्य, दो बहनें व तीन भाई परिवार सहित एकत्र हुए थे। माहोल बड़ा गमगीन व संजीदा था। खामोशी को भंग करते बड़ी बहन तरुणा ने कहा, भैया! याद है? छोटे होते छुपा-छुपाई खेलते हुए मैं उस अलमारी के ऊपर चढ़ कर छिप गई थी और फिर वहीं सो गई थी।
बड़े भाई वरुण के चेहरे पर फीकी-सी मुस्कान उभरी। उस से छोटी करुणा सब से छोटे करण के कंधे पर हाथ रखकर बोली, और यह भोला बादशाह अपने खेल में ऐसे ही एक-दूसरे से टकराता फिरता था। इसे कहना छिप जा, तो यह कोने में जा खड़ा होता और आँखें मीच लेता।
गम के बादल कुछ छंटने लगे। तरुणा फिर बोली, यादों के ये खज़ाने सदा हमारे साथ रहेंगे।
सब से बड़ा संजीव सिर हिलाता हुआ फुसफुसाया, पर जो खज़ाना हमने आज गंवा लिया है, वह फिर कभी नहीं मिलेगा!फिर कुछ संभलकर चेहरा पोंछता हुआ बोला, मुझे सारी उम्र यही पछतावा और दुःख रहेगा कि हम सब माँ के पेंशन-लाभ से मिलने वाले पैसों के लिए आपस में लड़े। माँ को इससे बहुत दुःख पहुँचा…और इससे भी बड़ी बात कि उसके बाद हम उसे मिले भी नहीं…माँ ने कितने संदेशे भेजे…पत्र लिखे, पर हम…।संजीव की आँखों से आँसू बहने लगे।
करण जिसके पास माँ रहती थी, बोला, माँ को तो तुम सबका वियोग ही ले गया…आखरी समय भी उसकी नज़रें दरवाजे पर ही लगी रहीं…।
शेष भाई-बहन अपनी व्यस्तता तथा आने के बनाए कार्यक्रमों के बारे में बताने को उत्सुक दिखाई दिए। पास बैठे उनके चाचा जी सब देख-सुन रहे थे। दीर्घ उच्छवास छोड़ते हुए वे उठ गए और जाते हुए बोले, एक विधवा माँ ने तुम सबको पाल-पोस, लिखा-पढ़ा कर योग्य बनाया…तुम्हें परिवार वाला बनाया और तुम सब एक माँ को नहीं संभाल सके…भीतर ही भीतर तड़पती, कुरलाती बेचारी चली गई…आज ये बातें सुना कर किसे सुख देने आए हो?…जाओ, अपने घर जाओ…
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