रशीद अब्बास
आषाढ़ के महीने हैदर शेख की जेठी चौकी के कारण बाज़ार में भीड़ थी। ठेले ऊपर सरिया लादे एक मज़दूर आ रहा था। वह ठेले को भीड़ से बचाता रहा था। जब वह सड़क किनारे खड़े एक मोटर-साइकिल के पास से निकालने लगा तो ठेले पर लदा सरिया मोटर-साइकिल से रगड़ खाने लगा।
“देखना बुजुर्गो! कहीं नुकसान ही न कर देना… एक तरफ कर निकाल लो। सरिया भी तो सारे शहर का लाद रखा है…।” मोटर-साइकिल की चिंता में खरीदारी बीच में ही छोड़, मास्टर मिंदर सिंह शौरूम में से फुर्ती से बाहर आते हुए बोला।
“सासरी 'काल, मास्टर जी!” मज़दूर ने नम्रता-पूर्वक हाथ जोड़ कर कहा।
“सति श्री अकाल! बुज़ुर्गो, तुमने इतना सरिया क्यों लाद लिया? अपनी उम्र का तो ख़याल किया करो…।” मज़दूर की सफेद दाढ़ी और ख़स्ता सेहत को देखते हुए मास्टर जी ने अपनी डॉई की हुई दाढ़ी पर हाथ फिराते हुए कहा।
“मास्टर जी… आपने शायद मुझे पहचाना नहीं… तभी मुझे बार-बार बुज़ुर्ग कह रहे हैं… मैं बंता हूं… आपका शागिर्द…रुड़की गाँव की दलित-बस्ती वाला…।” अँगोछे से पसीना पोंछते हुए मज़दूर ने कहा।
भीड़ के कारण बंता ठेला धकेलता आगे निकल गया और मास्टर जी बेसुध खड़े पंद्रह-बीस वर्ष पहले के उन दिनों बारे में सोचने लगे जब बंता दसवीं कक्षा का होनहार विद्यार्थी था।
-0-
No comments:
Post a Comment