बलवंत कौर चाँद
शरनी के विवाह को यद्यपि बारह वर्ष हो गए थे, परंतु अभी तक उसे अपने पति के वेतन का ही पता नहीं लगा था।
वेतन वाले दिन बेबे दरवाजे पर खड़ी प्रतीक्षा करती और गुरदयाल भी वेतन माँ को थमा कर ही अपने कमरे में जाता।
आज वेतन का दिन था। इस बार शरनी ने पहले ही पति को मना लिया था कि अब वेतन उसे दिया करे क्योंकि माँ ने तो सभी लड़कियों की शादी कर दी है। अब तो उनकी जीती भी बड़ी हो चली है और बच्चों की ट्यूशन फीस भी उसे माँ से माँग कर देनी पड़ती है। कई बार तो माँ के पास छुट्टे पैसे नहीं होते और बच्चे रो-रो कर स्कूल जाते हैं। उनकी अध्यापिका उन्हें क्लास में खड़ा कर देती है और कई बार तो वापस घर ही भेज देती है।
गुरदयाल सिंह ने ‘हाँ’ में सिर हिला तो दिया, लेकिन बेबे को छोड़कर पत्नी को वेतन देना, उसे एक गहरी खाई पार करने के समान लग रहा था।
वही बात हुई। बेबे हर बार की तरह दरवाजे पर खड़ी थी।
“बेबे, अब मैं वेतन शरनी को दिया करूँगा।”
“न बेटा! बेगानी बेटियां कब घर बनाती हैं। ये तो उजाड़ा करती हैं। यह तो मैं ही हूँ जिसने सारा घर सँभाल कर रखा है।” यह कहते हुए माँ ने आज भी वेतन पकड़ लिया।
शरनी भी दरवाजे के पीछे खड़ी, सब देख-सुन रही थी। ‘बेगानी बेटी’ सुन कर उसका कलेजा फट गया। उसने दरवाजे के पीछे से निकल, सास के हाथों से पैसे उठाते हुए कहा, “ बेबे, आप भी इस घर में ब्याही आई थीं, इसलिए ‘बेगानी बेटी’ ही हुईं।”
फिर वह अपने पति को जीत का अहसास कराती अंदर चली गई।
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1 comment:
अपने हक के लिये तो खुद ही पहल करनी होगी।
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