Thursday 17 June 2010

अपनी मिट्टी


निरंजन बोहा


महानगर के सरकारी दफतर में एक क्लर्क से दूसरे क्लर्क की सीट तक चक्कर काटता, सरपंच जागीर सिंह सुबह से ही परेशान था। धंसी-सी नाक वाला डीलिंग क्लर्क तो उस पर टूट ही पड़ा था, बाबा! तुझे कह तो दिया कि दो दिन बाद आना, फिर भी तू पीछा नहीं छोड़ता। गाँव में सरदार कहलाने वाला सरपंच उसके सामने बेचारा-सा बनकर रह गया था। भीड़भाड़ वाले इस महानगर में अजनबी लोगों के बीच घिरे हुए, उसे महसूस हो रहा था जैसे उसका अपना कोई अस्तित्व ही न हो।

ज्यादातर वह अपनी पंचायत के सचिव या अपने कालेज में पढ़ रहे बेटे को ही सरकारी दफ्तर के काम के लिए भेजता था। पर आज किसी खास काम के लिए उसे आप ही महानगर आना पड़ा था। इस शहर का प्रत्येक व्यक्ति उसे भाग-दौड़ में दिखाई दिया। उससे बात करने के लिए किसी के पास फुर्सत ही न थी। भीड़ में घिरे हुए भी स्वयं को अकेला महसूस करने का इतना तीव्र अहसास उसे पहले कभी नहीं हुआ था। इसलिए वह जल्दी से गाँव लौट कर अपनी खोई पहचान हासिल करना चाहता था।बस-स्टैंड को किस नंबर की बस जाएगी?उसने सड़क किनारे खड़े एक बाबू से पूछा।

आगे से पता करो।रूखा-सा जवाब पाकर, पहले से ही परेशान सरपंच और बेचैन हो उठा। आगे जाकर पूछने की हिम्मत उसमें न रही। बस की प्रतीक्षा करने की बजाय उसने रिक्शावाले को आवाज दी और बिना पैसे पूछे ही रिक्शा में बैठ गया। उसने सोचा झगड़ा करने की बजाय, रिक्शावाला जितने पैसे माँगेगा, वह दे देगा। अपने आप में खोये को पता ही न चला कि कब बस स्टैंड आ गया।

हाँ भई! कितने पैसे?उसने अपना बटुआ खोलते हुए पूछा।

पैसे रहने दो सरदार जी।रिक्शावाले ने उसका बैग उतारते हुए कहा। पराए शहर में इतने अपनत्व-भरे शब्दों की तो उसे बिल्कुल उम्मीद नहीं थी। वह आश्चर्यचकित रह गया। उसने हैरानी से रिक्शावाले की तरफ देखा। वह तो उसके गाँव का लड़का प्रीतू था जो पाँच साल पहले घर से भाग गया था।

अरे प्रीतू तू!सरपंच ने उसे बांहों में भर लिया। प्रीतू हैरान था कि गाँव में रूखे स्वभाव वाला सरदार यहाँ आकर इतना नर्म कैसे हो गया।

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2 comments:

श्यामल सुमन said...

सुन्दर और प्रेरक कहानी।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com

RAJNISH PARIHAR said...

यही है गाँव की माटी की सौंधी खुशबू ,जो गाँव को शहर से अलग करती है!शहर में इंसान है कहाँ?बस चाबी भरे रोबोट है जो मशीन की भांति पूरे दिन चलते रहते है..संवेदना,अपनापन,लगाव तो जैसे लुप्त हो गया है !बहुत ही अच्छी लघुकथा!!!