जसवीर राणा
‘लगता है तीन बज चले होंगे! …सूरज भी ढल गया!…पर सरदार अब तक रोटी लेकर नहीं आया…।’ चहबच्चे की मुंडेर पर बैठे नीलू ने सूरज की ओर देखा।
एक क्षण के लिए उसके चेहरे पर अफसोस-सा पसर गया। लेकिन अगले ही पल उसे चारपाई पर पड़े बीमार बाप की बात याद आई–‘नीलू बेटा! आज काम कर आ बस। ’गर न गए तो सरदार दिहाड़ी काट लेगा।…और फिर आज तू आराम की रोटी तो खा लेगा।…घर पर तो तुझे पता ही है, पूड़े पकते हैं रोज…!’
बापू की बात मान कर वह सवेरे ही सरदार के खेत में आ गया था। आते ही उसने बताए अनुसार क्यारों में पानी छोड़ दिया। पानी का रास्ता बदलते-बदलते वह हाल से बेहाल हो गया। भूख से उसके पेट में चूहे दौड़ने लग गए। तीन बजने वाले हो गए, मगर अभी तक न सवेर की, न दोपहर की रोटी आई थी।
“नीलू, ये ले पकड़ रोटी!”
भूख का मरसिया पढ़ रहे नीलू ने सिर घुमा कर पीछे देखा, सरदार रोटी लिए खड़ा था। इससे पहले कि वह कुछ बोलता, सरदार ने फटाफट कपड़े में से दो-तीन रोटियाँ निकाली। रोटियों पर अचार रख, उसके हाथों में पटकते हुए उसने हुक्म जारी किया, “कस्सी उठा और क्यारों के चारों ओर चक्कर लगा। बैठना बिलकुल नहीं।…रोटी मेंड़ पर चलते-चलते ही खा लेना।”
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5 comments:
ओह! यह रोटी जो न करवाए
प्रभावी रचना
bahut achchhi laghu katha hai
ek majdoor sabkuchh kar sakta hai
har haal main jeene baala insan
http://sanjaykuamr.blogspot.com/
oh sundar...khoob abhivyakti
सुन्दरत्तम्।
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