निरंजन बोहा
महानगर के सरकारी दफतर में एक क्लर्क से दूसरे क्लर्क की सीट तक चक्कर काटता, सरपंच जागीर सिंह सुबह से ही परेशान था। धंसी-सी नाक वाला डीलिंग क्लर्क तो उस पर टूट ही पड़ा था, “बाबा! तुझे कह तो दिया कि दो दिन बाद आना, फिर भी तू पीछा नहीं छोड़ता।”
“आगे से पता करो।” रूखा-सा जवाब पाकर, पहले से ही परेशान सरपंच और बेचैन हो उठा। आगे जाकर पूछने की हिम्मत उसमें न रही। बस की प्रतीक्षा करने की बजाय उसने रिक्शावाले को आवाज दी और बिना पैसे पूछे ही रिक्शा में बैठ गया। उसने सोचा झगड़ा करने की बजाय, रिक्शावाला जितने पैसे माँगेगा, वह दे देगा। अपने आप में खोये को पता ही न चला कि कब बस स्टैंड आ गया।
“हाँ भई! कितने पैसे?” उसने अपना बटुआ खोलते हुए पूछा।
“पैसे रहने दो सरदार जी।” रिक्शावाले ने उसका बैग उतारते हुए कहा। पराए शहर में इतने अपनत्व-भरे शब्दों की तो उसे बिल्कुल उम्मीद नहीं थी। वह आश्चर्यचकित रह गया। उसने हैरानी से रिक्शावाले की तरफ देखा। वह तो उसके गाँव का लड़का प्रीतू था जो पाँच साल पहले घर से भाग गया था।
“अरे प्रीतू तू!” सरपंच ने उसे बांहों में भर लिया। प्रीतू हैरान था कि गाँव में रूखे स्वभाव वाला सरदार यहाँ आकर इतना नर्म कैसे हो गया।
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2 comments:
सुन्दर और प्रेरक कहानी।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
यही है गाँव की माटी की सौंधी खुशबू ,जो गाँव को शहर से अलग करती है!शहर में इंसान है कहाँ?बस चाबी भरे रोबोट है जो मशीन की भांति पूरे दिन चलते रहते है..संवेदना,अपनापन,लगाव तो जैसे लुप्त हो गया है !बहुत ही अच्छी लघुकथा!!!
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