Wednesday, 16 March 2011

ममता

आर.एस आज़ाद

वह दृश्य भी देखने वाला था। बाँझ पति-पत्नी डॉक्टर की उसके क्लिनिक पर मिन्नतें कर रहे थे, डाक्टर साहब, इस बच्चे को हम अपनी जान से भी बढ़कर पालेंगे।

उनकी मिन्नतों से डॉक्टर का दिल पसीज गया।

डॉक्टर ने उन्हें बाज़ार से बच्चे के लिए कपड़े लाने को कहा। जब वे कुछ देर बाद बाज़ार से लौटे तो डॉक्टर हैरान रह गया। वे कितने ही रेडीमेड सूट, तौलिये, जुराबें, कम्बल, पाउडर व साबुन ले आए थे।

डॉक्टर के कहने पर नर्स ने बच्चे को उनकी गोद में डाल दिया। बस फिर क्या था, वे खुशी से पागल हो उठे। कितनी ही देर तक वे डॉक्टर और नर्स को धन्यवाद देते रहे।

डॉक्टर ने उन्हें जाने की इज़ाजत दे दी। डॉक्टर अपनी आदत अनुसार उन्हें क्लिनिक की नीचे वाली सीढ़ी तक जाते हुए देखने लगा। वह अपने दिल में कितनी खुशी महसूस कर रहा था, यह तो ऊपरवाला ही जानता था।

वे बच्चा लेकर क्लिनिक के बाहर सड़क पर पहुँचे ही थे कि पीछे से मोटर-साइकिल ने टक्कर मार दी। बच्चा औरत के हाथों से छूटकर एक तरफ जा गिरा।

उसने एक जोरदार चीख मारी, हाय मेरा बच्चा!

चीख के साथ ही उसने हमेशा के लिए अपनी आँखें बंद कर ली।

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Sunday, 6 March 2011

हार

निरंजन बोहा

रात की बची-खुची बासी रोटी दे दो। भला होगा तुम्हारा।भिखारिन लड़की ने करुणा भरी आवाज दी।

भाग यहाँ से! पता नहीं कहाँ से आ जाती हैं सवेरे-सवेरे मनहूस शक्लें!भीतर से सख्त और रूखी मर्दानी आवाज आई।

गरीब पर तरस करो…! तुम्हारे बच्चें जीते रहें…! खुशियाँ बनी रहें!लड़की ने फिर प्रार्थना की।

ठहर तू इस तरह नहीं जाएगी।गुस्से भरी आवाज के साथ मर्द बाहर आया। लड़की के घिसकर झीने हो चुके कपड़ों में से उसके जवान शरीर को देख, वह जहाँ था वहीं रुक गया। उसने अपने होठों पर जीभ फेरी और कहा, तू ठहर, मैं तेरे लिए रोटी लेकर आता हूँ।

आवाज में एकाएक नरमी भरकर वह तेजी से भीतर गया और गरम रोटियों के ऊपर आचार रख तुरंत लौट आया।

लड़की तब तक अपने दुपट्टे से छाती को ढकते हुए गली का मोड़पार कर चुकी थी।

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Saturday, 26 February 2011

श्रद्धांजलि


 इंग्लैंड में रह रहे पंजाबी लघुकथा लेखक श्री गुरदीप दीप पुरी पिछले दिनों इस दुनियाँ को सदा के लिए अलविदा कह गए। उनका पंजाबी लघुकथा संग्रह खाहिश’ पंजाबी में चर्चित रहा है। ‘पंजाबी लघुकथा’ अपनी ओर से इस दिवंगत लेखक को श्रद्धांजलि अर्पित करता है। प्रस्तुत है दिवंगत लेखक की दो लघुकथाएँ।  
                                       
                             बोझ
यार, जबसे यह नई कमेटी आई है न, ससुरों ने गुरु-घर में सुधार लहर ही चला दी है।गुरुद्वारे के ग्रंथी-सिंह ने बड़े दुखी स्वर में कहा।
वह कैसे?दूसरे गुरुद्वारे के ग्रंथी ने हैरान होते हुए गुरुभाई से पूछा।
देखो न, नई गोलक रख दी है। इसमें न चिमटी पड़ती है और न ही गोंद लगी तीली। अब ये छोटी-छोटी हरकतों पे उतर आए हैं। रात को अखंडपाठ की माया भी गोलक में डाल जाते हैं।
हूवर चला लिया कर। ऐसे दुखी मत हो।
यह सुनते ही पहले ग्रंथी के मन से बड़ा बोझ उतर गया।
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                         फंड
प्रिंसीपल साहिब! यह मेरी कहानियों की नई पुस्तक छपी है। इसकी दो प्रतियाँ स्कूल की लायब्रेरी में रख लें। कुछ खर्चा-वर्चा ही निकल जायेगा।
रख तो लेते यार, पर फंड ही नहीं हैं।
हमने कौन सी बैंक की किश्त उतारनी है जी। हमने तो आपके साथ शाम को शुगल ही करना है, लद्धे मछली वाले के बैठ के। साथ में घूँट-घूँट दारू…।उसने हंसते हुए कहा।
दे जा फिर पाँच प्रतियाँ। हिसाब लद्धे के यहाँ बैठ कर कर लेंगे।”  प्रिंसीपल ने रुमाल से मुँह पोंछते हुए कहा।
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Sunday, 20 February 2011

रिश्तों के अर्थ

                            
निरंजन बोहा
खद्दर के मैले कपड़ों में लिपटे अपने बापू की पगड़ी में से बाहर झाँकती लटों की ओर देखते हुए उसकी निगाहें नीची हो गईं।
ये गाँव में मेरे बापू का सीरी(बटाईदार) है।उसने दफ्तर के सहयोगियों से अपने बापू की जान-पहचान कराई। जिस बेटे को पढ़ाने के लिए उसका बाल-बाल कर्ज में डूब गया, वह उसे बाप मानने से इनकार कर रहा था।
बापू, तू कुछ तो मेरी पोजीशन का ख़याल करता। अगर ढंग के कपड़े तेरे पास नहीं हैं तो दफ्तर आने की क्या जरूरत थी?बेटे ने बापू को एक ओर लेजाते हुए झिड़का।
हूँ…तेरी पोजीशन! नौकरी लगने के बाद तू अपनी और अपनी बीवी की पोजीशन बनाने में ही लगा रहा। कभी उस कर्जे के बारे में भी सोचा है, जो तुझे पढ़ाने के लिए मैंने अपने सर चढ़ाया है…?बूढ़े बाप की आवाज में तल्खी आ गई।
शहर में रहने के लिए पोजीशन जरूरी है। तुम गाँववालों को क्या पता। जब मेरा अपना ही गुजारा नहीं होता तो तुमको कहाँ से भेजूं पौंड?बेटा अपनी असलियत पर आ गया।
तो ठीक है। अगर तुझे अपनी पोजीशन का इतना ख़याल है तो बंदा बनकर हर महीने पाँच सौ रुपये मुझे भेज दिया कर, नहीं तो मैं तेरे दफ्तर में चीख-चीख कर कहूँगा कि मैं इसका बाप हूँ और इसके लिए ही मैंने अपनी यह हालत बनाई है।
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Thursday, 3 February 2011

अन्नदाता


डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति
      “राम भरोसे, इस तरह से कर, तू पहले मिट्टी से बट्टें बना ले, फिर प्याज की पनीरी लेकर…तू पहले इतना ही कर।” जोगिंदर सिंह अपने माली को अपनी कोठी में एक तरफ खाली पड़ी जगह पर सब्जी लगवाते हुए कह रहा था।
      राम भरोसे उसी तरह किए जा रहा था, जिस तरह उसे हिदायत होती। वास्तव में वह अभी जोगिंदर सिंह की कोठी में नया था।
      “इक बार में बात चंगी तरह समझ लेते हैं, समझा।” जोगिंदर सिंह ने कहा।
      इतने में ही कोठी के गेट के आगे कार रुकी और उसमें से तीन-चार आदमी उतरे। जोगिंदर सिंह उनकी तरफ चला गया।
      ‘सत श्री अकाल’ बुला कर वे लॉन में पड़ी कुर्सियों पर बैठ गए।
      जोगिंदर सिंह ने राम भरोसे को चाय-पानी लाने को कहा। फिर वे सब बातें करने लगे।
      “देखो जी, जब तक केन्द्र से भइयों का राज नहीं जाता, तब तक देश की हालत सुधरेगी नहीं।”
      “बताओ भला, भइयों का राज जाएगा कैसे? चाहे राज किसी पार्टी का हो, आखिर प्रधानमंत्री तो भइया ही होगा।”
       “बात तो ठीक है, यू.पी. से ही ज्यादा सांसद आते हैं।”
       “पर फिर भी, कोई न कोई चारा तो किया ही जाए। ये भइये पिछले चालीस सालों से साले देश की धरती पर चढ़े बैठे हैं। देश को भूख न नंगेज के हवाले कर छोड़ा है। कम से कम एक बार तो निकाले ही जाएं।”
सभी मिल कर अपनी भड़ास निकालने पर लगे हुए थे।
      चाय पीकर वे चले गए। राम भरोसे को जब बर्तन उठाने के लिए बुलाया गया तो वह आकर जोगिंदर सिंह के पाँवों में पड़, रुआंसा-सा बोला, “आप हम को नहीं निकालना। आप हमारा माई-बाप हैं, सरकार!”
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Saturday, 22 January 2011

कलाकार


दर्शन मितवा
सड़क के किनारे मीठी और सोज़ भरी आवाज़ में कोई अंधा गा रहा है। उस के इर्द-गिर्द भीड़ जमा है। मैं भी भीड़ में हूँ।
एकत्र हुए लोग अंधे की तारीफ कर रहे हैं।
देखो कितना अच्छा गाता है…पर बेचारा अंधा है। कितनी मीठी और दर्दभरी आवाज़ है…बोल कलेजे को छूते चले जाते हैं।
भाई यह हिंदुस्तान है…और हिंदुस्तान तो है ही कलाकारों का घर।मैं बेवजह ही अपनी छाती फुलाता हूँ।
बाबूजी, एक पंजी…भगवान तुम्हारा भला करे…तुम्हारे बच्चे जीएँ…।अंधा सभी के सामने हाथ फैलाता है।
मुझे जैसे अपना और अपने हिंदुस्तान का मान कम होता हुआ लगता है।
अंधे को बढ़िया कलाकार कहने वाले सभी लोग एक-एक कर वहाँ से खिसकने लगते हैं।
अबे ओ अंधे! तूने आज फिर यहाँ भीड़ जमा कर ली। तुझे कितनी बार कहा है, यहाँ चौक में मजमा न लगाया कर। फिर भी तू मजमा लगा के बैठ जाता है। तू ऐसे नहीं मानेगा…डंडा घुमाते हुए आए सिपाही ने उसे धौल जमा दी।
बूढ़ा शरीर धक्का खाकर नाली के किनारे जा गिरता है। हाथ में इकट्ठे हुए पैसे नाली में जा गिरते हैं।
साले को कितनी बार कहा है, पर ऐसे कहाँ अक्ल आती है…जब तक थाने में लेजाकर न सेंके।
एक-एक कर सभी लोग खिसक गए।
‘यह भई हिंदुस्तान है…और हिंदुस्तान तो है ही कलाकारों का घर।–अपने कहे शब्दों को याद कर मुझे लगता है जैसे मेरी छाती रीढ़ की हड्डी से जा मिली हो।
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