दर्शन मितवा
सड़क के किनारे मीठी और सोज़ भरी आवाज़ में कोई अंधा गा रहा है। उस के इर्द-गिर्द भीड़ जमा है। मैं भी भीड़ में हूँ।
एकत्र हुए लोग अंधे की तारीफ कर रहे हैं।
“देखो कितना अच्छा गाता है…पर बेचारा अंधा है। कितनी मीठी और दर्दभरी आवाज़ है…बोल कलेजे को छूते चले जाते हैं।”
“भाई यह हिंदुस्तान है…और हिंदुस्तान तो है ही कलाकारों का घर।” मैं बेवजह ही अपनी छाती फुलाता हूँ।
“बाबूजी, एक पंजी…भगवान तुम्हारा भला करे…तुम्हारे बच्चे जीएँ…।” अंधा सभी के सामने हाथ फैलाता है।
मुझे जैसे अपना और अपने हिंदुस्तान का मान कम होता हुआ लगता है।
अंधे को बढ़िया कलाकार कहने वाले सभी लोग एक-एक कर वहाँ से खिसकने लगते हैं।
“अबे ओ अंधे! तूने आज फिर यहाँ भीड़ जमा कर ली। तुझे कितनी बार कहा है, यहाँ चौक में मजमा न लगाया कर। फिर भी तू मजमा लगा के बैठ जाता है। तू ऐसे नहीं मानेगा…”डंडा घुमाते हुए आए सिपाही ने उसे धौल जमा दी।
बूढ़ा शरीर धक्का खाकर नाली के किनारे जा गिरता है। हाथ में इकट्ठे हुए पैसे नाली में जा गिरते हैं।”
“साले को कितनी बार कहा है, पर ऐसे कहाँ अक्ल आती है…जब तक थाने में लेजाकर न सेंके।”
एक-एक कर सभी लोग खिसक गए।
‘यह भई हिंदुस्तान है…और हिंदुस्तान तो है ही कलाकारों का घर।”–अपने कहे शब्दों को याद कर मुझे लगता है जैसे मेरी छाती रीढ़ की हड्डी से जा मिली हो।
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