निरंजन
बोहा
अपनी बहन की
सहेली रीमा उसे अच्छी लगती। जब वह उस की बहन के पास बैठी होती तो वह बहाने बना
वहाँ चक्कर लगाता रहता। रीमा भी उसकी चोर-निगाह का ध्यान रखने लग पड़ी थी। लेकिन
वह सदा अपनी आँखें नीचे झुकाए रखती।
पिछले कुछ दिनों से रीमा उनके घर नहीं आ रही थी। उसका मन
करता कि वह अपनी बहन से रीमा की गैरहाज़री का कारण पूछे। पर बड़ी बहन से ऐसा पूछने
का साहस वह नहीं कर सका। वह यह सोच कर बेचैन था कि कहीं रीमा उसकी चाहत की बात
उसकी बहन को न बता दे। उसकी बहन रीमा के घर अक्सर जाती रहती थी।
एक दिन वह अपनी बहन के साथ कैरम खेल रहा था। कमरे में एक
सुंदर नौजवान आया। उसने आते ही उसकी बहन की ओर देखते हुए कहा, “इधर रीमा तो नहीं आई?”
“नहीं, इधर तो नहीं आई…आप बैठो, मैं चाय बनाकर लाती हूँ।” उसकी बहन ने विशेष ज़ोर
देकर उस नौजवान को बैठने के लिए कहा। बहन ने उस नौजवान का उससे परिचय भी करवाया, “भैया, ये रीमा के भाई
हैं, पवन जी।”
उसे लगा जैसे रीमा के भाई को देखकर उसकी बहन की आँखों में
विशेष चमक आ गई है। उस दिन के बाद रीमा का उनके घर आना-जाना जारी रहा। पर अब वह
जहाँ तक सँभव होता उधर जाने से बचता, जिधर उसकी बहन साथ बैठी होती। अपने घर में
रीमा की उपस्थिति उसे बुरी लगती। वह दिन-रात सोचता रहता कि दोनों सहेलियों के
संबंधों को कैसे ख़त्म करवाए।
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