प्रीत नीतपुर
मैंने साइकिल पक्की सड़क से कच्चे राह पर उतारा।
थोड़ी दूर आगे गया तो देखा, बारह-तेरह वर्ष का एक लड़का साइकिल की चेन चढ़ाने के
काम में उलझा हुआ था। उसके पास जाकर मैंने अपना साइकिल रोका तथा उसकी मदद करने के
ख्याल से कहा, “चढ़ा लेगा कि मैं चढ़ाऊँ?”
“चढ़ नहीं रही…।” पसीने से लथपथ लड़के ने
उदासी भरी आवाज में कहा।
मैंने अपना साइकिल खड़ा
किया और एक मिनट में ही उसके साइकिल की चेन चढ़ा दी।
लड़के की आँखें खुशी में
चमक उठीं।
“किधर को चला?” मैंने स्वाभाविक ही पूछ
लिया।
“बापू खेत में हल चला रहा
है, उसकी रोटी लेकर जा रहा हूँ।”
“रोटी…!!” लड़के के पास न छाछ-पानी
वाला डोलू था, न ही रोटियों वाला कपड़ा। फिर रोटी कहाँ थी?
मैंने हैरानी प्रकट करते
हुए पूछा, “रोटी कहाँ है?”
लड़के ने अपनी घसी-सी मटमैली पैंट की दहिनी जेब
थपथपाते हुए कहा, “यह रही मेरी जेब में।”
मैंने ध्यान से देखा, उसकी पैंट की जेब थोड़ी-सी
ऊपर को उभरी हुई थी।
लड़के ने साइकिल के पैडल पर पैर रखा। लड़के के
पाँव नंगे थे।
मैं साइकिल पर जा रहे लड़के को देख रहा था। उसकी
पैंट की जेब में से रोटी पर लिपटा कागज़ बाहर को झाँक रहा था।
मेरे मुख से स्वाभाविक ही निकल गया, “अन्नदाता!…और रोटी…!”
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