Sunday 9 March 2014

इंतज़ार



मनप्रीत कौर भाटिया

बस सड़क पर तेजी से दौड़ी जा रही थी। पर अर्चना को लग रहा था जैसे बस की गति धीमी होती जा रही है। आज उसका आखरी पेपर अच्छा नहीं हुआ था, फिर भी वह राकेश से मिलने की खुशी में पगलाई हुई थी। आज तो उसने सदा के लिए राकेश का हो जाना था। अपना प्यार पाने के लिए, वह अपना घर-बार हमेशा के लिए छोड़ आई थी। शायद उसके घर वाले उन्हें कभी एक न होने देते।
तभी एकाएक बस रुक गई। पता चला कि एक्सीडेंट हो गया है। अर्चना ने खिड़की से झाँक कर देखाएक औरत लहू-लुहान हुई अपने बेटे की लाश से लिपटी बिलख रही थी। इस दृश्य ने अर्चना के दिमाग में खलबली मचा दी।
उसके दोनों भाई भी एक दिन इसी तरह सड़क दुर्घटना में मारे गए थे।
‘हाय! कितनी पीड़ा सही थी तब मेरे माता-पिता ने…क्या अब मेरे माता-पिता यह गम सह लेंगे कि मैं…?…नहीं, नहीं…अब तो मैं ही उनकी जान हूँ।…वे तो मर जाएँगे मेरे बिना…वह सदमा तो उन्होंने प्रभु की इच्छा समझ कर सह लिया था…पर यह सदमा…मेरे कारण होने वाली बदनामी…क्या वे…?
अर्चना घबरा गई ‘नहीं, नहीं,…यह मैं क्या करने जा रही हूँ। जवानी के जोश में पागल हुई मैं तो भूल ही गई। मुझे ईश्वर जितना प्यार करने वाले माता-पिता ही तो हैं।
वह बिना कुछ और विचारे, जल्दी से बस से उतरी और अपने होस्टल को लौट गई। होस्टल से सामान उठा शाम को वह घर पहुँची तो उसके इंतज़ार में आँखें बिछाए बैठी उसकी माँ उसे बाहों में लेकर बावलों की तरह चूमने लगी।
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