Tuesday, 5 November 2013

ढह रहे बुर्ज



गुरचरण चौहान

ड्योढ़ी में बैठा सरमुख सिंह बीस वर्ष पहले की स्मृतियों में खो गया उसके पिता जवंद सिंह बराड़ इलाके के बहुत ही आदरणीय व्यक्ति थे। थाने से लेकर कचहरी तक में उन्हें बैठने के लिए कुर्सी मिलती थी। सरमुख सिंह की आँखों के आगे जवंद सिंह आ खड़ा हुआ, जैसे कल की बात हो। बैठक के आगे बने पक्के चबूतरे पर मोंढे के ऊपर बैठा जवंद सिंह। वह अपनी छड़ी चबूतरे पर मारता हुआ सामने बैठी संगत को कहता, हम सिद्धू बराड़ हैं, बाबा आला सिंह के खानदान से। पटियाला के महाराज हमसे लगान नहीं वसूलते। वे कहते हैं सिद्धू बराड़ मेरी बिरादरी वाले हैं…।
आज सुबह उसके बेटे के मुँह से निकली बात उसका कलेजा चीर गई, बापू, बता तूने क्या टींडे लेने हैं हमारे काम से? तेरी फोकी सरदारी को हम क्या चाटें!…कहता, दुकान का नाम ‘बराड़ बूट हाऊस’ क्यों रखा…खेतीबाड़ी में अब क्या पड़ा है…मुझसे बड़े तीन खेती कर क्या घर नोटों से भर रहे हैं!…
सेम की मार से पिछले सात-आठ साल से उनके घर को तो जैसे ग्रहण लगा था। सरमुख सिंह के भीतर बसे जाट को कमज़ोर आर्थिकता ने तबाह कर दिया था, पर फोके अहं ने उस के मुख से छोटे बेटे को कहा दिया था, न अब तू छोटी-जाति वाले काम करेगा…लोगों के पैरों में जूतियाँ…
इसमें क्या बुरा है? व्यापार तो व्यापार है…और ये रहे दुकान के मुहुर्त के निमंत्रण-पत्र, जिसे देने हों दे देना। बेटा उसके पास निमंत्रण-पत्र रख कर चला गया। उसके भीतर का जाट सारा दिन उसके दिमाग में उथल-पुथल मचाता रहा कि वह निमंत्रण-पत्र बाँटे या नहीं।
दिन छिपने के साथ ही सरमुख सिंह अनमना-सा उठा और अपने लँगोटिया-यार जमीत सिंह नंबरदार के घर की ओर चल दिया। जमीत सिंह ने सारी उम्र जायज़-नाजायज़ हर काम में उसका साथ दिया। नीम के पेड़ के नीचे बैठे जमीत सिंह को सुबह बेटे के साथ हुई तकरार की बात बता, वह हल्का महसूस कर रहा था।
सरमुख, अब तो चुप ही भली। अपना ज़माना अब लद गया…जमीत सिंह ने गहरी साँस ली।
नंबरदार, तू भी…!सरमुख सिंह हैरान-परेशान नंबरदार को एकटक देखेता रहा।
चारपाई से उठते हुए सरमुख सिंह ने अपनी फ़तूही की जेब से दुकान के मुहुर्त का निमंत्रण-पत्र निकाल नंबरदार को पकड़ाया और बोझिल कदमों से अपने घर की ओर चल पड़ा।
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