प्रीत
नीतपुर
अपने बच्चे को
उँगली संग लगा, मैं बाज़ार में दाखिल हुआ तो उसने फरमाइशों की झड़ी लगा दी। कहे, “डैडी, यह लेना…डैडी, वह
लेना…।” मैं लारे-लप्पे लगा,
बच्चे को चुप कराने की कोशिश करता रहा।
मुझे पता था कि मेरी जेब का सामर्थ्य, बच्चे को एक रुपये की
‘चीजी’ दिलाने से अधिक नहीं था।
पर बच्चा कहाँ जानता था!
“डैडी, वह लेना है…।”
“वह क्या?…फुटबाल?”
“हाँ।”
“नहीं बेटे, छोटे बच्चे फुटबाल से नहीं खेलते…।”
“डैडी, मैंने तो वह लेनी है, साइकिली…।”
“ले, अब तू कौनसा छोटा है, साइकिली तो छोटे बच्चे चलाते होते
हैं…।”
मैं बच्चे को ऐसे खींचे लेजा रहा था जैसे कसाई बकरी को। पर
संगीन पर टँगा मेरा दिल बुरी तरह तड़प रहा था। वाह री मजबूरी!
“डैडी, वह लेना…।”
“वह क्या?”
“डैडी, वह…।” बच्चे ने उँगली से सामने इशारा किया, “वह पिस्तौल…।”
“नहीं बेटे, पिस्तौल से नहीं खेलते, पुलिसवाले पकड़ लेते
हैं।” अब तक मेरी बेबसी
झुँझलाकर गुस्से का रूप धारण कर चुकी थी।
“डैडी, वह…।” शेष शब्द बच्चे के मुख से निकलने से पहले ही थप्पड़ की चपेट
में आकर दम तोड़ चुके थे।
बच्चे की मासूम आँखों से बहते आँसुओं में मुझे अपना बचपन
दिखाई दिया। आज मुझे पता चला कि भरे बाज़ार मेरा बापू मुझे थप्पड़ क्यों मारता
होता था।
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2 comments:
आपकी यह प्रस्तुति 19-09-2013 के चर्चा मंच पर प्रस्तुत है
कृपया पधारें
धन्यवाद
आपकी पंजाबीनुमा हिंदी की तरह मासूम सी कहानी पढ़कर अच्छा लगा॥
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