नूर
संतोखपुरी
रात काफी बीत
चुकी थी। गरीब बंते के परिवार के सभी सदस्य आपस में बातें कर रात गुजार रहे थे।
गाँव की गलियों में आवारा कुत्ते भौंक-भौंक कर जैसे सोए हुए गाँव को जगाने की
कोशिश कर रहे थे। ऐसा कर वे शायद बंते के दुःख में शामिल हो रहे थे।
“जब नंबरदारों का बूढ़ा मरा, उस समय बहुत-से औरत-मर्द इकट्ठे
हुए थे। उन के घर तिल रखने तक को जगह नहीं थी बची। संस्कार से पहले भी काफी लोग उन
के घर रुके रहे थे। मैं भी वहीं थी।” बंते की पत्नी ने कहा।
“बड़े सरदारों की माँ की अर्थी ले जाने के वक्त कितने लोग
थे! गाँव से लेकर श्मशान तक लोग ही लोग थे, जैसे लोगों की बाढ़ आ गई हो। और देख
लो, हम अकेले बैठे हैं।” बंते ने गहरी साँस लेते हुए कहा।
“सरपंच रेशम सिंह का बड़ा भाई जब हार्ट अटैक से मरा था, तब
भी अपने गाँव में मेला-सा लग गया था।” बंते का अठारह वर्षीय बड़ा बेटा जगतार बोला।
सोलह वर्षीय छोटा लड़का सोनू, कुछ खास नहीं बोल रहा था। वह
कच्चे फर्श पर पड़ी अपने दादा चरने की लाश की ओर लगातार देखे जा रहा था। परिवार के
बाकी सदस्यों की तरह रो-रोकर उसकी आँखों में से भी जैसे पानी सूख गया था।
कुछ दिन बीमार रहने के बाद, शाम साढ़े-सात बजे चरना प्राण
त्याग गया था। बंते व परिवार का रुदन सुन कर कुछ लोग छोड़ी देर के लिए उनके पास आ
बैठे थे। फिर सब अपने-अपने घरों को चले गए थे। चरने का संस्कार अब रात को तो हो
नहीं सकता था, इसलिए परिवार अकेला बैठा दिन चढ़ने की प्रतीक्षा कर रहा था।
गाँव के कुत्ते बंते के घर के बाहर भौंकने से नहीं हट रहे
थे। उन्हें अपने हिस्से की रोटी तक खिला देने वाला चरना, अब नहीं रहा था। शायद
इसीलिए वे रोने जैसी आवाज़ में भौंक-भौंक कर अपने हिस्से का दुःख प्रकट कर रहे थे।
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1 comment:
So sad.
वाह .
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