Wednesday, 15 May 2013

किसान और उसकी बीवी


बलवीर परवाना


चारे की गाँठ थी और हाथों में बैलों को हाँकने वाला डंडा। चारे की गाँठ टोके के आगे फेंक,  उसने बैलों के गले से पंजाली उतार, उन्हें नाँद पर बांधा।
      ‘‘आज काफी देर कर दी।’’ रसोई में बैठी उसकी घरवाली ने पूछा।
      ‘‘वह कीकर वाला खेत जोत रहा था। सोचा, अब जोतकर चलता हूं सारा....क्या छोड़कर जाना है।’’ उसके चेहरे की तरह उसकी आवाज से भी थकावट झलक रही थी।
      ‘‘यह पानी रखा है, गर्म...हाथ...पांव धो लेने थे।’’
      ‘‘पशुओं को चारा डाल दूं पहले, जिन्हें सारा दिन जोता है।’’ उसको एहसास नहीं था कि पशुओं के साथ वह भी सारा दिन चलता ही रहा है।
      उसकी युवा बीवी टोका-मशीन में मुठ्ठे लगाने लगी और वह टोका चलाने लगा। चारे की गाँठ कुतरकर, उसमें तूड़ी मिला, बैलों की नाँद में डाली। बैल चारा खाने लगे और वह पानी बर्तन में डाल हाथ-पांव धोने लगा। उसके दोनों बच्चे कभी के सो चुके थे।
      गहरी रात गए, वह रोटी खाकर फारिग हुआ। बैलों को फिर से चारा डाला और पंजाली के रस्से ठीक कर, डंडा ठीक जगह पर संभाला।  फिर चारपाई पर लेटते हुए उसने अपनी घरवाली से कहा, ‘‘सुबह जरा जल्दी जगा देना, मुर्गे की बांग के साथ....वह रोही वाला खेत खत्म करना है।’’
      सुरमे-भरी पलकों से उसकी बीवी ने उसकी तरफ देखा, पर वह करवट लेकर सो चुका था। और सांझ हो गई थी। सूरज दूर पश्चिम की तरफ डूब चुका था, पर अभी अंधेरा नहीं हुआ था। चारों तरफ सलेटी रंग फैला हुआ था। दिन भर के काम से थका-हारा एक किसान अपने घर लौटा। उसके सिर पर खिले तारों की तरफ ताकती वह रात के अँधेरे-सी एक आह भरकर रह गई।
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1 comment:

गुरप्रीत सिंह said...

एक अच्छी रचना।
yuvaam.blogspot.come