Sunday, 24 February 2013

गिफ्ट



                     
पांधी ननकानवी

बलजीत ने सोचा, अगर नीटू की स्कूल-ड्रेस नकद खरीद ली तो आखिरी हफ्ता होने की वजह से घर का खर्च चलाना कठिन हो जाएगा। इसलिए वह सीधी अपने जीजा की दुकान पर चली गई जो रेडीमेड कपड़ों का काम करते थे। दुकान पर पहुँची तो पता चला कि जीजा जी कहीं बाहर गए हुए हैं। काउंटर पर उसकी बहन खड़ी थी।
दोनों बहनें जब इधर-उधर की रस्मी बातें कर चुकी तो बलजीत ने नीटू के लिए स्कूल-ड्रेस की माँग की। ड्रेस नीटू के ठीक माप की थी। बलजीत ने कहा, “दीदी, इसके पैसे मैं पहली तारीख को दे जाऊँगी।”
“क्यों?…भई ये बात नहीं चलेगी।” मनजीत ने नाक-भौं सिकोड़ते हुए कहा।
बड़ी बहन की ऐसी बेरुखी देखकर उसका रंग फीका पड़ गया। उसने गले का थूक निगलते हुए कहा, “दीदी, हमने पहले कभी आपका पैसा रखा है क्या? सिर्फ हफ्ते भर की ही तो बात है।”
“तेरे जीजा जी ने मना कर रखा है। कहते हैं, चाहे सगे ही क्यों न हो, पर उधार नहीं देना। चल तू अस्सी नहीं तो चालीस ही दे जा, बाकी फिर दे देना।”
“दीदी, अगर पैसे होते तो सारे ही न दे जाती। मुझे तो आज भी देने और कल भी।”
बलजीत का मन उखड़-सा गया था। ड्रेस लेकर जब वह घर पहुँची तो पड़ोसन ने पूछ लिया, “बहन, ड्रेस कितने की है?
“अस्सी रुपये की।”
“कपड़ा तो अच्छा है।…किस दुकान से ली?
“अपने जीजा जी की दुकान से।”
“अच्छा!…फिर तो गिफ्ट में ही मिल गई होगी। तेरी तो मौज लग गई।”
“हाँ बहन!” कहते-कहते बलजीत की आँखों से दो आँसू निकल कर ड्रेस पर आ गिरे।
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Tuesday, 19 February 2013

क्या…?



अनवंत कौर

बहू के हाथ से कांच के बर्तनों वाली ट्रे गिर गई। दोष उसका नहीं था। सफेद मार्बल के फर्श पर गिरा पानी नज़र नहीं आ रहा था। पाँव फिसल गया। स्वयं तो किसी तरह सँभल गई, पर ट्रे गिर गई। कांच के दो गिलास व दो प्लेटें टूट गईं।
खड़का सुन, हर समय घुटनों के दर्द का रोना रोने वाली उसकी सास भागती हुई आई। कांच के टुकड़ों जितनी ही गालियों के टुकड़े, उसकी जबान से गोलियों की तरह बरसने लगे अरी ओ घर की दुश्मन, तेरा सर्वनाश हो! तू इस घर का बेड़ा गर्क करके रहेगी। भूखों की औलाद, पीछे तो कुछ देखा नहीं। अब यह भरा-पूरा घर तुझसे बर्दाश्त नहीं होता। यूं कर, अलमारी में जो क्राकरी पड़ी है, वह भी ले आ और सारी एक बार में ही तोड़ दे। जब तक तुझे एक भी प्लेट साबुत नज़र आएगी, तुझसे बर्दाश्त नहीं होगा।
पत्नी की कठोर आवाज़ व गालियाँ सुनकर ससुर भी अपने कमरे से बाहर निकल आया। कुछ पूछने की ज़रूरत नहीं थी। कांच के टुकड़े व बहू की आँखों के आँसू और पत्नी की गालियाँ, सब कुछ बयान कर रहे थे।
वह बोले, इसका क्या कसूर है? पाँव तो किसी का भी फिसल सकता है। गिलास ही हैं और जाएँगे।
आपने तो जबान हिला दी…और आ जाएँगे! महीने में एक बार तनख़ाह लाकर देते हो दोनों बाप-बेटे। मुझे ही पता है कि इस महँगाई के जमाने में घर का खर्च किस तरह चलाती हूँ। मुझे तो तीस दिन एक-एक पाई सोच कर खर्च करनी पड़ती है।
अच्छा! इस तरफ तो हमने कभी ध्यान ही नहीं दिया। आज से तुम्हें यह तकलीफ उठाने की ज़रूरत नहीं। पढ़ी-लिखी बहू आई है, आप ही बजट बनाकर घर चला लेगी। आगे से तनख़ाह इसके हाथों में दिया करेंगे।
क्…क्या…?
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Tuesday, 12 February 2013

बिरादरी



गुरचरण चौहान

ताँगेवाले ऊड़ी व जूली का आज फिर झगड़ा हो गया। सुबह गाँव में हुए फैसले के अनुसार, ताँगे की पहली फेरी आज जूली को ले जानी थी। पर जूली के घर में क्लेश के चलते वह अड्डे पर जरा देर से आया। उसके आने से पहले ऊड़ी ने अड्डे पर खड़ी सवारियाँ अपने ताँगे पर बैठा लीं। जब जूली अपना ताँगा लाया तो वह ऊड़ी के गले पड़ गया।
“आज पहली फेरी लगाने की बारी मेरी थी, तू कैसे?” ऊड़ी की रग-रग में गुस्सा बोल रहा था।
“अगर तू बारह बजे तक घर सोया रहेगा तो मैं तेरा इंतजार करता रहूँगा!
बात ‘तू-तू, मैं-मैं’ से होती हुई आगे बढ़ गई। ऊड़ी ने जूली को गले से पकड़ लिया। अड्डे पर खड़े लोगो ने उन्हें छुड़ाया और सवारियाँ ऊड़ी के ताँगे से उतरवा कर जूली के ताँगे में बिठा दीं।
कुछ देर बाद एक ऑटोवाला शहर से आया और गाँव में सवारियाँ उतार कर अड्डे पर आ खड़ा हुआ। ऑटोवाला जूली के ताँगे पर बैठी सवारियों को इशारे से ऑटो में बैठने के लिए उकसाने लगा।
“हम तो अभी चले हैं, दस मिनटों में मण्डी…आओ बैठो।” वह ऑटो को रेस पर रेस दिए जा रहा था।
जूली तो अभी खड़ा सोच ही रहा था, पर ऊड़ी ने भागकर फुर्ती से ऑटोवाले को बाहर घसीट लिया और उस पर साँटा बरसाने लगा। लोगों ने उसे बहुत मुश्किल से हटाया।
“यूँ ही दिमाग हिला हुआ है…पहले जूली से लड़ा और अब टैम्पू वाले के गले पड़ गया।” बिशनी दूसरी सवारियों को कह रही थी।
“ताई, अगर ये टैम्पू वाले यूँ ही हमारी सवारियों को ले जाने लगे तो हमारा क्या बनेगा? जूली से तो मैं फिर भी निपट लूँगा।” ऊड़ी ताँगे के पायदान पर पाँव रखता हुआ कह रहा था।
ऑटोवाला कब का शहर को रवाना हो चुका था।
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Tuesday, 5 February 2013

स्वाभिमान



राजिन्द्र कौर ‘वंता’

शक्ल-सूरत से वह नौजवान रिक्शाचालक पढ़ा-लिखा दिखाई देता था। रिक्शा में बैठे, मैंने देखा कि उसकी कमीज कई स्थानों से फटी हुई है। ऐसा लगता था कि कमीज की मरम्मत कई बार हो चुकी थी, लेकिन कमीज जैसे फटे रहने पर बजिद्द थी।
‘कितनी ही नई कमीजें मेरी अलमारी में झूल रही हैं। क्यों न एक-आध इसे दे दूँ।’ मैंने स्वयं से कहा।
जब रिक्शा मेरे घर के सामने रुकी तो मैंने झिझकते हुए कहा, “भैया, तुम्हारी कमीज की हालत बहुत खस्ता है, अगर बुरा न मानो तो एक मिनट ठहरो, मैं भीतर से एक कमीज ला देता हूँ।”
“नहीं सरदार जी, फटी हुई कमीज तो मैंने जानबूझकर पहनी है। इसमें गरमी कम लगती है।” मुस्कराते हुए उसने रिक्शा आगे बढ़ा दिया।
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