Tuesday, 12 February 2013

बिरादरी



गुरचरण चौहान

ताँगेवाले ऊड़ी व जूली का आज फिर झगड़ा हो गया। सुबह गाँव में हुए फैसले के अनुसार, ताँगे की पहली फेरी आज जूली को ले जानी थी। पर जूली के घर में क्लेश के चलते वह अड्डे पर जरा देर से आया। उसके आने से पहले ऊड़ी ने अड्डे पर खड़ी सवारियाँ अपने ताँगे पर बैठा लीं। जब जूली अपना ताँगा लाया तो वह ऊड़ी के गले पड़ गया।
“आज पहली फेरी लगाने की बारी मेरी थी, तू कैसे?” ऊड़ी की रग-रग में गुस्सा बोल रहा था।
“अगर तू बारह बजे तक घर सोया रहेगा तो मैं तेरा इंतजार करता रहूँगा!
बात ‘तू-तू, मैं-मैं’ से होती हुई आगे बढ़ गई। ऊड़ी ने जूली को गले से पकड़ लिया। अड्डे पर खड़े लोगो ने उन्हें छुड़ाया और सवारियाँ ऊड़ी के ताँगे से उतरवा कर जूली के ताँगे में बिठा दीं।
कुछ देर बाद एक ऑटोवाला शहर से आया और गाँव में सवारियाँ उतार कर अड्डे पर आ खड़ा हुआ। ऑटोवाला जूली के ताँगे पर बैठी सवारियों को इशारे से ऑटो में बैठने के लिए उकसाने लगा।
“हम तो अभी चले हैं, दस मिनटों में मण्डी…आओ बैठो।” वह ऑटो को रेस पर रेस दिए जा रहा था।
जूली तो अभी खड़ा सोच ही रहा था, पर ऊड़ी ने भागकर फुर्ती से ऑटोवाले को बाहर घसीट लिया और उस पर साँटा बरसाने लगा। लोगों ने उसे बहुत मुश्किल से हटाया।
“यूँ ही दिमाग हिला हुआ है…पहले जूली से लड़ा और अब टैम्पू वाले के गले पड़ गया।” बिशनी दूसरी सवारियों को कह रही थी।
“ताई, अगर ये टैम्पू वाले यूँ ही हमारी सवारियों को ले जाने लगे तो हमारा क्या बनेगा? जूली से तो मैं फिर भी निपट लूँगा।” ऊड़ी ताँगे के पायदान पर पाँव रखता हुआ कह रहा था।
ऑटोवाला कब का शहर को रवाना हो चुका था।
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1 comment:

गुरप्रीत सिंह said...

एक उत्तम रचना।

मेरी कविताएँ
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