राजिन्द्र कौर ‘वंता’
शक्ल-सूरत से वह नौजवान रिक्शाचालक पढ़ा-लिखा दिखाई
देता था। रिक्शा में बैठे, मैंने देखा कि उसकी कमीज कई स्थानों से फटी हुई है। ऐसा
लगता था कि कमीज की मरम्मत कई बार हो चुकी थी, लेकिन कमीज जैसे फटे रहने पर बजिद्द
थी।
‘कितनी ही नई कमीजें मेरी अलमारी में झूल रही हैं।
क्यों न एक-आध इसे दे दूँ।’ मैंने स्वयं से कहा।
जब रिक्शा मेरे घर के सामने रुकी तो मैंने झिझकते
हुए कहा, “भैया, तुम्हारी कमीज की हालत बहुत खस्ता है, अगर बुरा न मानो तो एक मिनट
ठहरो, मैं भीतर से एक कमीज ला देता हूँ।”
“नहीं सरदार जी, फटी हुई कमीज तो मैंने जानबूझकर
पहनी है। इसमें गरमी कम लगती है।” मुस्कराते हुए उसने रिक्शा आगे बढ़ा दिया।
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