सतिपाल खुल्लर
वह अभी
दिहाड़ी करने जाने ही लगा था कि उसके पिता ने अपने सिर चढ़े कर्ज की बात छेड़ दी।
“बापू,
तू ऐसे न सोचा कर, तेरे सिर चढ़े सारे पैसै
उतार देंगे।”
“बेटे,
मैं ढीला रहता हूँ, मैं चाहता हूँ कि मेरे सिर से कर्ज उतरे और मेरी जान आसानी से
निकले। थोड़ा सोच-समझ कर खर्च करो और…”
“बापू, इतनी चिंता न किया कर।”
“बेटे,
सयानों का कहना है कर्ज कियामत और भूख नियामत।”
“ठीक है
बापू, जैसे तू कहे।”
शाम को लड़का जब घर आया तो हाथ-मुँह धोकर पिता के पास जा बैठा।
“ले
बापू, आज से तू सुर्खरू, तेरे सिर अब एक पैसे का कर्ज भी नहीं।”
“शाबाश मेरे
बेटे! ऐसी औलाद भगवान सब को दे।”
रात हो गई, पर
पिता को नींद नहीं आई। करवटें बदलते ही गुजर गई सारी रात। दिन चढ़े लड़का दिहाड़ी
करने चला गया। शाम को लौटा तो पिता बारे पूछा।
“वह तो तुम्हारे
पीछे-पीछे ही दिहाड़ी करने चला गया था।”
बात करते-करते
ही पिता आ गया।
“बापू, तुम बीमार
होकर भी दिहाड़ी…?”
“बेटे, तूने
मेरे सिर से कर्ज का बोझ उतार कर अपने सिर चढ़ा लिया। मुझे सब पता है, बूढ़ी आँखों
से कुछ भी छिपा नहीं रह सकता। तूने ब्याज पर पैसे लेकर कर्ज उतारा है।”
“फिर क्या हुआ
बापू!…तू दिहाड़ी पर न जाता…”
“बेटे, तेरे सिर
पर कर्जा हो और मैं आराम से आँखें मीच लूँ, यह कैसे हो सकता है?”
बेटे ने देखा
पिता के चेहरे पर थकावट की जगह चमक थी।
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